Sunday, March 31, 2013

सुदामा चरित्र


Fसुदामा चरित्र F


दोहा :-;......(1)
विनती शारद की करूँ ,, मम जिभ्या लें वास
सम्मुख श्री गणेश हो  ,, विघ्न कभी न पास
दोहा :-;......(2)
बाल सखा यदुनाथ के ,, विप्र सुदामा एक
भिक्षा वृत्ति भोजन करे ,,थे दिल के वह नेक
दोहा :-; ......(3)
उनकी घरनी पति व्रता ,,नाम सुशीला जानि
रहती सदा सनेह से ,, पति चरणों सुख मानि
दुर्मिल सवैया छन्द ......(4)
घर देखि दशा हिय सोच बसा ,, किस भांति दयाल कृपा करिहै
यह फूट कठौतिहि टूट तवा,, कब लौ यदु नाथ हमें बरिहै
पति भी हमरी नहिं मानत है ,, अब बालक ले हम हूँ मरिहै
यह सोच चली वह नारि भली ,,हम जाय पती चरणों परिहै
मत्तगयन्द सवैया छन्द ........(5)
बीत गए छह मास पिया अब तंदुल चार नही घर में है
भीख नही मिलती तुमको अब कंदुक भी तुमरे कर में है
सीख हमार हिये रख लो पिय होयि भला हरि के दर में है
नाथ अनाथन के वह नाथहि आन बसे सचराचर में है
दुर्मिल सवैया छन्द .......... (6
सिर मोर पखा जिनके पिय है तुम बाल सखा उनको कहते
वह ईश हवे जग के प्रभु जी फिर भी विपदा तुम क्यों सहते
तुम जाय कहो अपनी विपदा हठ और नही मन में गहते
अब सारि किनारि नही रहती जर झोपडि में हम है रहते
सुन्दरी सवैया छन्द ..........(7)

तिरिया हठ हार गये तब है मन मारि चले प्रभु धाम सुदामा
नहि चाउर चार बचे घर में हम देवहु भेटहि का अभिरामा
वह ठाकुर तीनहु लोकहि के हम दारिद दीनहि ब्रम्ह सुदामा
नहि बात सुनी द्विज की कछु है तुरतै लय तंदुल आयहु धाम


सुन्दरी सवैया छन्द ...........(8)
हरि दर्शन चाह भरी दिल में मन सोचत भाग हमार जगे है
पग कंटक फूल समान लगे अरु धूल भरा पथ बाग लगे है
बिजली कड़के नभ में जब है द्विज लागत नैन हमार ठगे है
पहुचे करुणा निधि धामहि को अब संकट आज हमार भगे है
सुन्दरी सवैया छन्द ............(9)
पग डोल रहे द्विज के अब है हरि मारग होवत संकट भारी
अकुलाय रहे विपदा निज वो मुख नाम रटे वह कान्ह मुरारी
रसना रस सूख गया सबही चिपटी बिच तालुहि जीभ हमारी
अब आन हरो सब संकट को घनश्याम सखा अभिराम खरारी
मत्तगयन्द सवैया छन्द ..........(10)
टेर सुनी जब बाल सखा नहि ,, देर करी घनश्यामहि ने है
बालक रूपहि आय गयो तब ,, बाह गही अभिरामहि ने है
मारग से निज द्वार खड़ा कर ,, आप लग्यो निज कामहि में है
होत अचंभित ब्रम्हहि आजुहि ,, का हम नाथहि ग्रामहि में है
मत्तगयन्द सवैया छन्द  .........(11)
स्वर्ण जड़े सब मंदिर है वह ,, माणिक में सब द्वार मढ़े है
भौन बना इक उच्च तहाँ पर ,, जा उस द्वार सुदाम अड़े है
द्वारहि पाल सुनाय रहे द्विज ,, नाथ अनाथन साथ पढ़े है
जाय सँदेश कहो प्रभु से तुम ,, बाल सखा उन द्वार खड़े है
किरीट सवैया छन्द ..........(12)
सोचत है मन सेवक ये हम कैसन जाय सँदेश सुनावहु
बाल सखा कहते हरि को यह दारिद है यह बात बतावहु
जौ नहि मानहु बात सुदामहि ब्रम्हहि शाप गले लगवावहु
मारि चला मन सेवक है वह होइ सुखी हरि दास कहावहु
सुन्दरी सवैया छन्द ..........(13)
नहि शीश पगा तन हूँ न झगा प्रभु जानत हूँ न बसे केहि ग्रामा
लिपटी तन धोति फटी जिनके अरु पाँव उपामह की नहि शामा
द्विज द्वार खड़ा व निहार रहा कह बाल सखा हमरे घनश्यामा
तुम जाय सँदेश कहो हरि से ,उन द्वार खड़े इक ब्रम्ह सुदामा
घनाक्षरी छंद .......... (14)
सुदामा नाम सुनिके हरि छोड़ राज काज
आज दौड़े नंगे पाँव मित्र को बुलाने वो
दशा विचित्र देखिके चकित रुक्मणी हुई
आया ऐसा कौन यहाँ सोच रही जाने वो
पहुँचे द्वार कृष्ण है मिलने बाल मित्र से
दशा दीन देखि मित्र लगे अकुलाने वो
विपदा सही क्यों मित्र मेरे रहते हुए भी
विप्र बोले विपदा में मोहि पहिचाने को
दोहा :-; .........(15)
 अंक उठा कर द्वार से ,, लाये कृष्ण मुरार
सिंहासन बैठाय के ,, पहनाया निज हार
मत्तगयन्द सवैया छन्द .........(16)

पाँव पखारन लागि हरी अरु ,, पानि परात न हाथ छुयो है
नैनन से जलधार बही हरि ,, नीरहि नैनन पाँव धुयो है
कंटक जाल लगे इतने उन ,,  मानहु पाँव बबूर बुयो है
दीन दशा द्विज देखिह रोवत ,,  अपारहि श्याम भयो है
कुण्डलिया छंद  .........(17)
भाभी ने मेरे लिए ,, दिया कौन उपहार
रहे छुपाते क्यों सखे ,, बदला न व्यवहार
बदला न व्यवहार ,, करत तुम अबहूँ चोरी
चना दये गुरुमातु ,, चबा गये कर के चोरी
कह सदोह कविराय न कौनव ताला चाभी
फिर क्यों रहे छुपाय दिये तुम तंदुल भाभी

दोहा :-;….. (18)

इतना कह तब कान्ह ने,, तंदुल लीन्हा छीन
दो मूठी फिर फाँक के ,,  दो लोकों को दीन
किरीट सवैया छन्द ..........(19)

तीसरि मूठि बढ़ी जब श्यामहि बाँह लगी तब रुक्मणि रोकन
लोक दये तुम दो जब नाथहि रोक सके तुमको जनि सोचन
होव भिखारि सुदाम सरीखन नाथ अनाथ करो जनि मोकन
रोक लयो तब तीसरि मूठिहि नारिहि बात रखी भव मोचन

                                              दोहा :-;…….. (20)

बड़े दिनों तक विप्र ने ,, किया द्वारिका वास
घरनी का दुख सोच के ,, हिय बिच उपजी त्रास
दोहा :-;…….. (21)
लगे कहन तब श्याम से ,, जावहु अपने धाम
मन में सोचत विप्र तब ,, दीन्हा नहि कछु दाम


दुर्मिल सवैया छन्द .......... (22)
जगदीश कहावत बाल सखा ,, वह पीर सभी हिय जानत है
हमको छलिया अब भी लगते ,, हिय ईश उन्हें नहि मानत है
बहु आदर कीन्ह हमार भला ,, जनि दाम दिया अब लानत है
यह सोच अपार हिये दुख भा ,,द्विज नारि कहा कब ठानत है

सुन्दरी सवैया छन्द ..........(23)

हरि मोकहु दै वह पावहु भी तुम ये मन श्रापहि दीन्ह सुदामा
घरनी पर कोप किया बड़ है वह ठेलि पठावत थी इन धामा
यह लादि लढ़ा भर दाम रखो अब दीन्ह दया करिके घनश्यामा
यह सोचत राह कटी द्विज की पहुचे तब ग्रामहि ब्रम्ह सुदामा
दोहा :-;…….. (24)

कहाँ फूस की झोपड़ी,, मन में सोच सुदाम
का फिर वापस लौट के ,, आये द्वारिक धाम 
दोहा :-;…….. (25)

द्वारे प्रिय को देखि के ,, झट से खोल किवाड़ 
पाँव छुवन को जब बढ़ी ,, डांटेव नैन उघाड़ 
दोहा :-;…….. (26)

हे नारी तुम कौन हो ,, पिय है तुमरे कौन 
बात सुनी जब विप्र की ,, भई सुशीला मौन 
दोहा :-;…….. (27)

भूलि गये तुम का प्रिये ,, हम तुमरी है नारि 
या वैभव जो देखते ,, दीन्हा कृष्ण मुरारि 

कुण्डलिया छंद  .........(28)
बात सुनी जब नारि की,, हिय को मिला है चैन
लोभ क्षोभ सब मिट गया, उघरे अंतस नैन
उघरे अंतस नैन ,, विप्र तब रोवन लागे
क्यों हरि का हम श्राप ,, दीन्ह वह सोचन लागे
संदोह कहे कविराय सुनो धरि ध्यान गुनी
करते नही यकीन सभी कानों कि बात सुनी
दुर्मिल सवैया छन्द .......... (29)
यदुनाथ सुदामहि मीत कथा मति मंद लिखा सनदोहहि ने
गिरिजा पति होय दयाल सदा नहि द्वन्द रहे हिय मोहहि में
तर जाय सभी भव सागर से विनती यदुनाथ य तोहहि से
रसहीन रहा वह काव्य सदा रसना हरि नाम न जोहहि जे
 



                    रचनाकार

                      चिदानन्द शुक्ल "संदोह"

                                                                 (8090188304)



[1]

Monday, August 20, 2012

कोऊ संगी से आस लगा बैठा

कोऊ संगी तलाश रहा जग में कोऊ संगी से आस लगा बैठा 
जब है सफर में कोई साथ नही फिर तू किसकी आस लगा बैठा 

जब आये धरा पर रोते हुए सब देख प्रसन्न तुझे है हुए 
जग को तू समझ सका नहि बंदे रुदन में दीप है जले हुए 
जब जब है संकट आया तुझ पे तब तब
 ये सुखी संसार हुआ
फिर क्यों आस लगायी जग से जब साथ तेरे नहि कोई हुआ

ये जग सराय हम सभी है मुसाफिर फिर क्यों इसको घर तू समझ बैठा
जब है सफर में कोई साथ नही फिर तू किसकी आस लगा बैठा

ये मोह भरी दुर्गम नगरी यहाँ पग-पग पर छलिये बैठे है
कहीं नारी खड़ी वट ओट मिले कहीं सुत मार कुंडली बैठे है
रे प्राणी पथ से न भटकना ये माया पति श्री हरी की माया
नारद सम ध्यानी भी फँस गये जब हरि ने विश्व मोहनी रूप बनाया

कितना नादान बना बन्दे तू क्यों नश्वर को है अमर समझ बैठा
जब है सफर में कोई साथ नही फिर तू किसकी आस लगा बैठा

बचपन बीता खेल कूद कर यौवन तिरिया संग प्रीत बढाई
देख बुढ़ापा अब क्यों रोते हो पहले हरी की याद न आयी
अपना उद्देश्य कभी मत भूलो बस किरदार निभाते रहना .
संदोह मोह भ्रम उसे न होवे ज्ञान का दीप दिखाते रहना

जब समय हुआ पूरा तेरा फिर क्यों कुछ स्वास की आस लगा बैठा
जब है सफर में कोई साथ नही फिर तू किसकी आस लगा बैठा

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

लगा ना जी पायेंगें

वह थी भादों की रात पड़ा जब दिल को था आघात लगा ना जी पायेंगें 
शिथिल हुई थी देह मगर मस्तिस्क में उपजा नेह तेरे बिन कैसे जायेंगें 

समय नही था पास मगर थी मोहि पिया मिलन की प्यास 
अब करता किसकी आस संदेसा लिखना था कुछ खास 
उभरे मस्तिस्क मे
ं अहसास कलम अब भी है मेरे पास
कभी अपने थे रिश्ते खास मेरे मस्तिस्क को है विश्वास

संदेसा पाकर मेरा वो तुरत दौड़े आयेंगें लगा ना जी पायेंगें
शिथिल हुई थी देह मगर मस्तिस्क में उपजा नेह तेरे बिन कैसे जायेंगें

घटा चढी अम्बर घनघोर वन में मग्न हो नाँचे मोर
दामिनी दमक रही है जोर फैला चारों ओर अजोर
मानो अभी हो गया भोर खोया चन्दा संग चकोर
नयना फड़के मेरे जोर हिय में उठने लगी हिलोर

मौत कलम बिच लग गयी होर सजन मेरे आयेंगें लगा ना जी पायेंगें
शिथिल हुई थी देह मगर मस्तिस्क में उपजा नेह तेरे बिन कैसे जायेंगें

ख़त का आखिरी सोपान था ये घर बना शमशान था
ये विडंबना थी कोई प्रकृति की या स्वप्न भान का था
लगा कुछ आहट सी हुई किसी ने द्वार पर दस्तक दई
खोला जब किवाड़ मैंने सम्मुख दिल का मेहमान था

संदोह मोह जीत गया अब यम पाश से बच जायेंगें ,, लगा जी पायेंगें
शिथिल हुई थी देह मगर मस्तिस्क में उपजा नेह तेरे बिन कैसे जायेंगें

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी



जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 
रात होने को सखी साँझ भी ढल गयी 
जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 
लौट आये बसेरों में परिंदे सभी 
जला चुके दीप घरों के बशिन्दें सभी 
अब बेला दियों की बुझने की आ गयी
 जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 

जो न मिलती ये नज़रें न इल्जाम लगता 
ये मेला मोहब्बत का हर शाम लगता 
क्यों दिल आता उनपे क्यों ख्वाब पलते 
नींद आती हमें भी जरा शाम ढलते 
हम चाँद को यूं निहारा किये रात भर 
बादलों के आगोश में चांदनी छुप गयी 
जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 

न भटक राह लौट के आजा तू बन्दे 
लौट आये सभी घोसलों के परिंदे 
सपने जब बुने तूने सजना के लिए 
फिर क्यों जला रखे है इस घर के दिए 
बाट जोहा किये उनकी राहों में हम 
बन बटोही गुजरेंगें संग उनके भी हम 
वो आये न सखी अब इन्तहा हो गयी 
जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

मुक्तक

बनाते नित नये रिश्ते पुरानों की दुहाई से 
हंगामा नही होता कभी गाढ़ी कमाई से 
पीते हो हमारी ही हमें बदनाम करते हो 
पिलायी मुझको यारों ने कहते हो लुगाई से 

बहुत कुछ कहने को है मगर चुपचाप बैठा हूँ 
फ़साने मुझको भी मालुम है मगर चुपचाप बैठा हूँ 
नही कहता हूँ बेवफा तुमको ये इन्तहा मेरे मोहब्बत की 
तू आज भी मिलती छुप छुप के यारों से मगर चुपचाप बैठा हूँ 

मै आज लिक्खूंगा कलम से बहुत सी बातें
बीतती है कैसे मेरी ये काली स्याह सी राते
खामोश थे जब तक बहुत छेड़ा किये हमको
जो बोले आज महफ़िल में सरे आम होंगी बहुत सी बातें

चिदानंद शुक्ल "संदोह "

घनाक्षरी छंद

मित्रों आज भाद्रपक्ष के प्रथम सोमवार को सृजित यह घनाक्षरी छंद हमारे आराध्य देव भगवान भोले 
नाथ के चरणों में निवेदित है 

हर हर महादेव

जाके साथ भोलेनाथ कैसे होगा वो अनाथ 
कालों के भी काल जाके बने रखवारी है 
संग गिरिजा है जाके द्वारपाल नंदी ताके
हस्त में त्रिशूल वाके भाल चन्द्र धारी है 
कंठ में भुजंग रहे जटा बिच गंग बहे 
देख देव दंग रहे ऐसे त्रिपुरारी है
भूमि पापियों से भारी आओ काशी के खरारी
सुनो विनती हमारी बढ़े अत्याचारी है

चिदानंद शुक्ल "संदोह "

Sunday, August 19, 2012

हरिगीतिका छंद



मातु शारदे के चरणों में प्रस्तुत है दो हरिगीतिका छंद आप सब के विचार आमंत्रित है


माँ शारदे कर दे दया तू ,, द्वार तेरे हूँ खड़ा
अब छोड़ सबकी आस माता ,, शरण तेरी हूँ पड़ा
निज खोल झोली ये भिखारी ,, भीख मांगे ज्ञान की
थोड़ी नज़र फेरो इधर भी ,, प्रिय करुणा निधान की

काव्य महारथियों ने मिलकर ,, व्यूह कुछ ऐसा रचा
मै शब्द बाणो से बींधा हूँ ,,तीर नहि तरकश बचा
रसना बसों यदि आज अम्बे ,, पूर्ण सारे काज हों
जो अभी तक है वार करता ,, साथ विद्वत समाज हो

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

सिंहावलोकन सवैया छंद रसना

मित्रों एक सिंहावलोकन सवैया छंद लिखा है माँ वागेश्वरी को समर्पित है आप सबके विचार जानना चाहता हूँ 

रसना रस धार बने जिससे जगदंब सदा रसना बसना 
बसना मधुसूदन बाँसुरि ले जिससे हिय दूर रहे तिशना
तिशना जब नाहि बचे हिय में यम की तब फांस नही फसना 
फसना नहि मोह कभी हमको बस अम्ब सदा बसना रसना 

चिदानन्द शुक्ल "संदोह"

मुक्तक


मुक्तक 

जब भी आये हम उस पार दरिया के तुम इस पार होते हो
तुम्हारे थे तुम्हारे है बेकार की बातों में क्यों खार होते हो
माना की तनहा थे तुम तो हम भी महफिलो में न थे
संदोह हर दम साथ है क्यों इस तरह जार जार होते हो

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

पहचान हमारी मिटायेगें कैसे



माना की आप को कई दूसरे मिल गये हम जैसे
पर कुछ पहचान हमारी भी है उसे मिटायेगें कैसे

यूं कि इन रिश्तों में लचक तो बहुत होती है ऐ दोस्त
पर जो झुक गया आपके सामने उसे झुकाएंगें कैसे

पैसे का मोल बहुत है आपकी नज़रों में ये सच है
पर जो हमने आपको दिया खैरात में वो चुकायेंगें कैसे

आपकी महफ़िल बड़ी हो गयी और आप नामचीन हो गये
पर जो साथ थे तन्हाई में उनसे पीछा छुड़ायेगें कैसे

लगता है अब आप मिटा देना चाहते है सारे निशा मेरे
छाप मैंने जो छोड़ी है दिल पर तेरे उसे हटायेंगें कैसे

धोखा दिया है हमने या जागीर छीन ली तुम्हारी
गर ये सच भी है तो इसे सबको बतायेंगें कैसे

कभी दिलदार को छोड़ा एक अजनबी यार के लिए
संदोह ये बाते अपनी जुबाँ से किसी को सुनायेंगें कैसे

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

मत्तगयन्द सवैया छंद


मित्रों एक मत्तगयन्द सवैया छंद लिखा है जो आपके सम्मुख प्रस्तुत है यह 23 वर्णों का छन्द होता है, जिसमें सात भगण (ऽ।।) और दो गुरुओं का योग होता है।

नैन विशाल हवे जिनके सखि मोर पखा सिर सोह रही है
है अधरों बिच बांसुरि शोभित ऐसन मूरत मोह रही है
भूलि गयो वह गोकुल श्यामहि गोपिन खोजत खोह रही है
बँवरि हो वृषभान लली अब बाट तिहारहि जोह रही है

चिदानंद शुक्ल (संदोह ) 

चिड़ियों को बाज लिए बैठे है


फूल जिनकी राहों में बिछाते गये हम 
आज वही काँटों का ताज लिए बैठे है

भरोसे से जिन को राजे दिल बताया 
आज वही दुश्मनों को राज दिए बैठे है 

जो हँसते थे कल तक शाहजहाँ पर
आज देखा बाग में मुमताज़ लिए बैठे है 

संगीत से जो न वाकिफ थे नामुराद 
आज वही महफ़िल में साज लिए बैठे है

किस गुलिस्ता कि बात करते हो संदोह
हर डाल यहाँ चिड़ियों को बाज लिए बैठे है

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

मत्गयंद सवैया छंद


मित्रों सावन के पहले सोमवार की आप लोगों को हार्दिक शुभकामनायें भगवान भोलेनाथ आप सबकी मनोकामना पूर्ण करें हमारे आराध्य देव देवादिदेव भगवान भोलेनाथ के चरणों में एक मत्गयंद सवैया छंद निवेदित है

औघड़ शम्भु हवे हमरे नित , भंग धतूरहि भोग लगावें
कंठन सर्पहि माल सुशोभित , दर्शन दर्पहि दूर भगावें
काल कराल सदा जिनके बस, वह अभयंकर नाथ कहावें
मोह न व्यापित हो हमरे मन ,ऐसन ज्ञानहि दीप जगावें

चिदानन्दशुक्ल (संदोह )

मत्तगयन्द सवैया छन्द , सुन्दरी सवैया छन्द


मित्रों आज कई दिनों से कुछ लिखा नही जा रहा था तो आचानक ध्रुव का प्रसंग याद आ गया उसी पर दो सवैया छन्द लिखे है पहला मत्तगयन्द सवैया 23 वर्णों का छन्द है, जिसमें सात भगण (ऽ।।) और दो गुरुओं का योग होता है। और दूसरा सुन्दरी सवैया छन्द जो 25 वर्णों का और इसमें आठ सगणों तथा गुरु का योग होता है।

मत्तगयन्द सवैया छन्द
रोवत बालक मातु समीपहि जाकर के यह बैन उचारो
खेलन आज गयो नृप द्वारहि राजन गोद हमे है बिठ
ारो
देख हमे लघु मातहि ने तब जोरहि मोरहि कान उखारो
और कहा नहि बैठ सको तुम बैठत है यह पुत्र हमारो

सुन्दरी सवैया छन्द
समझाय रही सुत को अपने जनि शोक करो हिय में अपने है
नृप गोद उतार दियो तुमको उपकार प्रभूत किया उनने है
सुमिरो हरि को मन धरिके वह पूर्ण करे सबही सपने है
तप जाय करो वन में हरि का हरिहे सब संकट वो जितने है

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

दिल की किताब मांग बैठे


साथ गुजरे पल का वह हिसाब मांग बैठे
कैसे लाऊं मै वो दिल की किताब मांग बैठे

पिलाते थे अपने चश्मों से रोज जाम जो
वो मुझसे ही देखो आज शराब मांग बैठे

कैसे करूं मै पूरी ये आरजू सनम की
रेगिस्तान में वो मुझसे गुलाब मांग बैठे

तडपते रहे दिन रात जिनकी यादों में
वो अपने आसुंओं का हिसाब मांग बैठे

दिल के जख्मों को ले अब तक जी रहा था
आते ही आज देखों अपना ख्वाब मांग बैठे

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

Sunday, July 8, 2012

औघड़ शम्भु हवे हमरे नित , भंग धतूरहि भोग लगावें
कंठन सर्पहि माल सुशोभित , दर्शन दर्पहि दूर भगावें
काल कराल सदा जिनके बस, वह अभयंकर नाथ कहावें 
मोह न व्यापित हो हमरे मन ,ऐसन ज्ञानहि दीप जगावें 


चिदानन्दशुक्ल (संदोह )

Thursday, June 28, 2012

श्याम तूने जो बंशी बजायी न होती

श्याम तूने जो बंशी बजायी न होती 
तो सखियों संग राधा अकेली न होती 
न दिल उसका आता तेरे पर ऐ मोहन 
न राहों में वह बावरी बन मचलती 
तेरी बंशी ने उसपर ये जादू किया है 
तन मन की सुध खोई रटे पिया पिया है 
हुई क्या खता मेरी सखी से ऐ नटखट
छीन उसका चैन ये दर्द क्यों दिया है
भूल जाती तुझको वो याद नही करती
प्रीत की रीति जो सिखायी न होती
मझधार में छोड़ के जो जाना था कन्हैय्या
प्यार क्यों किया हमसे बंशी के बजैय्या
तोड़ मेरी मटकी रोज पनघट पर सताते थे
भूल गयो सारी बातें क्या यशुदा के छैय्या
आज मेरी कान्हा ये जग हँसाई न होती
श्याम तूने जो बंशी बजायी न होती

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

बात देखो मेरी अब कहाँ तक जाएगी

बात देखो मेरी अब कहाँ तक जाएगी 
निकली जो जुबाँ से दूर तक जाएगी 

रही मेरे सीने में दफ़न जब तलक 
डर रहा बन के आंसू निकल जाएगी 

ख्वाब में जब सजाया यह सोचकर 
वह सपनों में मेरे कभी तो आएगी 

प्यार करता रहा पत्थर से यह सोचकर 
एक न एक दिन तो खुदा वह बन जाएगी 

खुद से भरोसा हटा उसपर भरोसा किया 
क्या खबर थी कि वह अब बदल जाएगी 

जिन्दगी जी रहा था धुएं के पेड़ पर 
संदोह तेरी सिगरेट अब बुझ जाएगी



चिदानन्द शुक्ल (संदोह )