Tuesday, July 26, 2011

जिन्दगी की शाम

चन्द सांसे लेकर आया हूँ जमी पर न जाने कब जिंदगी की शाम हो जाये
क्यों करूं उन पर भरोसा जिनका साथ कुछ पल के बाद छूट जाये
कितने बसंत बीते और न जाने कितने औरबीत जाए
अब नही सहारा जीवन का किस पल पंक्षी उड़ जाये
जो साथ रहे बचपन से अब होने लगे पराये
अब जाऊं मै किसके संग कौन राह दिखलाये
तू भूल गया अपनी मंजिल सपनो में खोया रहता है
तू क्या है तेरा अस्तित्व ही क्या दर्पण में खोया रहता है
दर्पण में जो दिखता है वह तेरा प्रतिबिम्ब ही तो होता है
प्रतिबिम्ब को क्यों समझता सत्य वह तो धोखा होता है
धरा पर जब आये हम कुछ काम हमारा निश्चित था
खो गये दुनिया की भीड़ में हम जबकि जाना हमारा निश्चित था
जो सत्य मार्ग पर चलकर के हम कुछ ऐसा काम करें
अपनी मृत्यु को अमर बनाकर जग में अपना नाम करें
संदोह अब जान ले सत्य को तू कहे को भगा जाये
........न जाने कब जिंदगी की शाम हो जाये

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चिदानन्द शुक्ल ( संदोह )

Friday, July 22, 2011

कहीं देर न हो जाये

गीता में कहते हो असुरो का बढ़ता है जब -जब आत्याचार
मै धरा पर हूँ आता लेकर के नित -नित नये अवतार

अब आ जाओ मेरे गिरधर


डरता हूँ अब मै की तू बदनाम न हो जाये
गज को बचाया ग्राह से कालिंदी को कलि की दाह से
सुग्रीव को बचाया तूने बाली की मार से
द्रौपदी को की लाज राखी बढ़ा के उस की सारी को
बासुदेव को छुड़ाया तूने मार कंश अत्याचारी को
धरती को बचाया तूने हिरन्यक्ष को मार के
बचा ले देश को अब इन भ्रष्टाचारियों को मार के
शासक हुए निरंकुश सारे कोई न रहा रखवाला
धरा हुई आकुल अब तो कब आएगा बंशी वाला
भारत की पावन भूमि अब कहीं कलंकित न हो जाये
अब आ जाओ गिरिधर मेरे ....................................
समय -समय पर आकर तूने भारत भूमि का उद्धार किया
बिन शस्त्र उठाये हे भगवन कौरवों का तूने नाश किया
धर्म की रक्षा की खातिर तुम राम रूप में आये
असुरो का कर संहार प्रभु असुरारी कहलाये
प्रह्लाद की रक्षा के लिये नरसिंह रूप बनाया था
बामन बन कर के तूने बलि को पाताल पहुचाया था
बौध रूप में आकर तूने मानवता की सीख सिखाई
गाँधी को भेज तूने अहिंसा की मशाल जलाई
ऐसा ही कुछ अब आकर कर जा मनुआ बहुत घबराये
अब आ जाओ मेरे गिरधर कहीं देर न हो जाये

चिदानन्द शुक्ल ( संदोह )

नई बात



सुबह से शाम हुई शाम से रात हुई


मेरे दोस्तों तुम कहोगे कौन सी नई बात हुई


क्या नई बात से ही नई शुरआत होती है


नहीं ऐसा नही होता ऐसा होता तो


कल तक तुम मेरे पास थे आज भी मेरे पास होते


काश ऐसा होता कोई सूरज को रोकता


और उससे उसकी रोशनी के बारे में पूछता


चाँद को रोकता और उससे उसकी चांदनी के बारे में पूछता


मै तुम्हे रोकता और तुमसे अपने दिल की बात कहता


पर नही ऐसा मै नही कर सकता


लोग कहेंगे मै डरता हूँ ज़माने से


पर नही मै डरता हूँ उसकी रुसवाई से


जैसे कवि डरता है अपनी कविता से


शायर डरता है अपनी शायरी से


इन्हीं झंझावातो से जिंदगी दो से चार हुई


सुबह से शाम हुई शाम से रात हुई


मेरे दोस्तों तुम कहोगे कौन सी बात हुई






चिदानंद शुक्ल ( संदोह )

Thursday, July 21, 2011

बिन डिब्बे की इंजन

बिन डिब्बे की इंजन हुए हम रहा न अपना कोई साथी
अलग अलग सब चले मुसाफिर संग न रहा कोई साथी
नेता अभिनेता मस्त मस्त जनता के हौसले पस्त पस्त
महंगाई कर रही अस्त व्यस्त पर बजट बना है मस्त मस्त
जनता रोये खून के आंसू मदमस्त फिरे है हाथी
बिन डिब्बे की इंजन हुए हम रहा न अपना कोई साथी

घोटाले हो रहे बराबर सरकारें हो रहीं बेखबर
खून का घूट पिए सारी जनता कहते मुझको कोई न सुनता
नेत्रत्व विहीन हुए सब तुम कौन सुनेगा तेरी
जो खुद की न कर पाए रक्षा तो फिर क्यों बजायी रणभेरी
दुल्हे तो सब बन ही गये है पर रहा न कोई बाराती
बिन डिब्बे की इंजन हुए हम रहा न अपना कोई साथी

जागो अब मेरे प्यारो बापू न फिर से आयेंगे
एक जुट होकर करो लड़ो लड़ाई दूर भगाओ तुम महंगाई
प्याज बढ़ा है ब्याज की तरह आलू की अब शामत आई
महंगाई सुरसा बन बैठी सुरसरि ( गंगा ) ने ली अब अंगडाई
नेता अभेनेता बन बैठे अभिनेता नेता बन बैठे
हाथी छोड़ जंगल को पार्को , चौरहो पर जा बैठे
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई बन जाओ सब सब के साथी
बिन डिब्बे की इंजन हुए हम रहा न अपना कोई साथी

चिदानंद शुक्ल ( संदोह )

आप की याद

ढल चूका सूरज आ गयी निशा तारों की बारात लेकर
खो गयी थी नींद मेरी लुट गया था चैन मेरा आप को ही याद कर
रात भर मई कष्ट सहते यू ही सपने बुनता रहा
कभी खवाबों में बुलाकर पर सामने उनको न पाकर
मै बिलख रोता रहा पर कौन सुनता आह मेरी
किसको थी चाह मेरी जो आकर के मुझको लगा लेता अपने गले
भुला देता मुझसे जो हुए थे सिकवे गिले

मुझको रोता देखकर बादल को रोना आ गया
पूर्णिमा की पूनम रात को घनघोर अन्धेंरा छा गया
घनघोर बारिश होने लगी और बिजली कड़की तेज से
मानों प्रलय ही आ रही हो उड़ पवन के वेग से
मुझको ऐसा लगने लगा वो बारिश से जग के आ गयी
पर ये मेरा वहम था वो न आये उनकी याद फिर से आ गयी

ढल चुकी थी निशा उगने लगा सूरज यादों की बदली छट गयी
मै सोचता हूँ आज भी वो रात बिन महबूब कैसे कट गयी
मै शहरा से निकल चुका था उनकी यांदो का गुबार लेकर
ढल चुका सूरज आ गयी निशा तारों की बारात लेकर ................

चिदानंद शुक्ल ( संदोह )

मुझे यकीं है वो आकर के वापस लौट जायेंगे

आज फिर वो फिर से मेरी जिन्दगी में Aayenge
मुझे यकीं है वो आकर के वापस लौट जायेंगे
मेरे जीवन को एक बार फिर से वह बसंत बनायेगें
पर कुछ पलो बाद पतझड़ में छोड़ जायेंगे
मै सोचता हूँ बसा लू उसको आँखों में खवाब बनाकर
पर वो आंसू बनकर बह जायेंगे ............................ आज फिर

कहने को तो मै ये दुआ करता हूँ वो मिले न बिछड़ने के लिये
पर ये तो फितरत है उनकी इस बार भी हमे छोड़ जायेंगे मरने के लिये
दे जायेंगे अपनी कसम हमे याद मत करना लब खुले रखना पर कभी फरियाद न करना
यदि खुदा चाहेगा तो हम फिर मिलेंगे वरना अपने दिल में तुझको याद करेंगे
तेरी यांदो की कसम तेरी चाहत की कसम तुझसे मिलने दुआ न करेगें
पर मुझको ये यकीं है मेरी फरियाद उस खुदा तक पहुच जाएगी................... आज फिर

कहते है वो जीवन के हर मोड़ पर तुम मेरा बस इंतजार करना
हम तुम्हे फिर से मिलेंगे और फिर कभी न बिछड़ने के लिये
चलेंगे साथ हम हमराही बनकर मेरी बातों का तुम ऐतबार करना
तेरे वादे को निभायेंगे ऐ मेरे महबूब अपने वादे को रखने के लिये
अब कोई वजह न बची संदोह जीने की तेरे वादे को निभाने ke सिवा
अब आ जा क्या तू फिर से लौट जाएगी आज फिर वो फिर से मेरी जिन्दगी में आएगी
मुझे यकीं है वो आकर के फिर वापस न जाएगी

चिदानंद शुक्ल ( संदोह )

भोलेनाथ की महिमा


चावल के चढ़ाये से चौदह भुवन देत नाथ गाल के बजाये से निहाल कर देत है
भंग के चढ़ाये से भुजंग भय भाग जात बेर के अर्पण से बैरी हर लेत है
बेल के पात से प्रसन्न होत भोलेनाथ धतूर के चढाने से खुशहाल कर देत है
शमी के पत्तो से समस्या समाधान करें मदार के पुष्प से दारुण दुःख हर लेत है
भक्तो के वशीभूत होत मेरे भूतनाथ भस्म के लगाने से भंडार भर देत है
ऐसे मेरे दीनबंधु अनाथों के नाथ भोलेनाथ खेल खेल में विष का पान कर लेत है
संदोह न संशय कर चिदानंद के दरबार में एक लोटा जल से कल्याण कर देत है

                                                             चिदानंद ( संदोह )

वो आयेंगे इसी राह ऐसा क्यों समझ बैठे


हम आपकी की मोहब्बत में ये क्या कर बैठे बिछा के दिल को अपने उनके रास्ते को सजा बैठे वो आयेंगे इसी राह ऐसा क्यों समझ बैठे
ये सोच कर की आओगे एक दिन फिर से हमारे गाँव में बैठेगे हम दोनों उसी पीपल की छांव में
करेंगे हम फिर से बातें अपनी मुहब्बत की सुला लेना एक बार फिर से अपनी जुल्फों की छांव में
मै भूल जाऊंगा वो सारी बातें ज़माने की चलो अब तलाश करते है इक नए आशियाने की
जहाँ न चाँद होगा न सूरज होगा न होगी झील पानी की चलो मिलकर बनाते है इक नई दास्ताँ जवानी की
पर ये तो सिर्फ ख्वाब थे जिनको हकीकत हम समझ बैठे हुआ क्या ऐसा की तुम हमसे इस कदर रूठ बैठे ......................

अब तो दिल दिल ही न रहा बंजर सा हो गया है रहता था इसमे जो रहनुमा वो दुनिया की भीड़ में खो गया
अब तो उनकी बातों का वो मंजर न रहा दरिया तो वही है पर समुन्दर ही कही खो गया
आँखों में पानी न रहा होंठों से मुस्कान जाती रही तुझसे मिलने की आस में जिन्दगी साथ निभाती रही
चंद सांसो को ले करके हम चले है उस पथ पर जहाँ दूर की मंजिल भी पास नज़र आती रही
चंद सांसो का मेहमा हूँ अभी मंजिल अधूरी है न जाने क्यों अभी तक तेरी मुझसे दूरी है
ऐसी क्या खता थी मेरी की वो नादाँ हमको समझ बैठे जगा के प्यार के शोलों को सब्नम उस पर डाल बैठे ..........

कई सावन बीते कई मधुमास बीते पर उन्हें क्या है फ़िक्र की हम किस हाल में जीते
अब तो झूलते है वो अपने महबूब की बाहों में हम आज भी वैसे ही भटकते है उनकी राहों में
अब दर्दे दिल मिटाने के लिये कोई तो दवा जरूरी है आकर के मुझको जहर ही दे दे ऐसी क्या मजबूरी है
मेरे मरने से पहले एक अहसान मुझ पर कर जाना अकेले न सही पर यार के संग मिलने आ जाना
अब तो तुम मेरे हो नही सकते तुम तो ठहरे उस पानी की तरह जो सागर में मिल नही सकता
संदोह अब छोड़ दे उसके प्यार को पाने की ललक जो है नही तेरा वो तेरा हो नही सकता
बड़े नादाँ थे हम एक संग दिल को अपना दिल ये दे बैठे जो अपना न था उसको खुद का क्यों समझ बैठे

                                                                                                                                                  चिदानंद ( संदोह )