Monday, August 20, 2012

कोऊ संगी से आस लगा बैठा

कोऊ संगी तलाश रहा जग में कोऊ संगी से आस लगा बैठा 
जब है सफर में कोई साथ नही फिर तू किसकी आस लगा बैठा 

जब आये धरा पर रोते हुए सब देख प्रसन्न तुझे है हुए 
जग को तू समझ सका नहि बंदे रुदन में दीप है जले हुए 
जब जब है संकट आया तुझ पे तब तब
 ये सुखी संसार हुआ
फिर क्यों आस लगायी जग से जब साथ तेरे नहि कोई हुआ

ये जग सराय हम सभी है मुसाफिर फिर क्यों इसको घर तू समझ बैठा
जब है सफर में कोई साथ नही फिर तू किसकी आस लगा बैठा

ये मोह भरी दुर्गम नगरी यहाँ पग-पग पर छलिये बैठे है
कहीं नारी खड़ी वट ओट मिले कहीं सुत मार कुंडली बैठे है
रे प्राणी पथ से न भटकना ये माया पति श्री हरी की माया
नारद सम ध्यानी भी फँस गये जब हरि ने विश्व मोहनी रूप बनाया

कितना नादान बना बन्दे तू क्यों नश्वर को है अमर समझ बैठा
जब है सफर में कोई साथ नही फिर तू किसकी आस लगा बैठा

बचपन बीता खेल कूद कर यौवन तिरिया संग प्रीत बढाई
देख बुढ़ापा अब क्यों रोते हो पहले हरी की याद न आयी
अपना उद्देश्य कभी मत भूलो बस किरदार निभाते रहना .
संदोह मोह भ्रम उसे न होवे ज्ञान का दीप दिखाते रहना

जब समय हुआ पूरा तेरा फिर क्यों कुछ स्वास की आस लगा बैठा
जब है सफर में कोई साथ नही फिर तू किसकी आस लगा बैठा

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

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