Thursday, December 22, 2011

"मनु का क्रंदन "

प्रकृति के हिमगिरि शिखर पर
कर रहा वह करुण क्रंदन
क्या किया था पाप हमने
जो हुआ यूं स्रष्टि विखंडन
स्वयं के अस्तित्व की लड़ाई 
सदियों से लड़ता रहा यह जानकर
उर्वशी है साथ मेरे मै अकेला हूँ नही
मै डटा रहा रणभूमि में सीना तानकर 
पर हाय अब तो मै अकेला
ही रह गया इस धरा पर
उर्वशी तो अप्सरा थी जो 
कुछ समय को आयी धरा पर
अब न ही उर्वशी है पास मेरे
और मेरा पौरुष भी जाता रहा 
अब होती निराशा जानकर यह 
क्यों व्यर्थ में जीता रहा 
इन विचारों को मन में लिए 
कर रहा वह ईश्वर का वंदन 
कर रहा वह करुण क्रंदन


क्यों किया था मैंने 
प्रणय निवेदन उवर्शी से
मै खोजता क्यों हूँ 
उसे अब बेबसी से 
जब कहा था उसने एक दिन
छोड़ मुझको चली जाएगी
वह स्वर्ग की अप्सरा है 
न वापस धरा पर कभी आएगी 
उस समय हमने यदि काम को 
वश में कर लिया होता
न उवर्शी से मिलन होता 
न बिछड़ने का वियोग होता
पर विधाता ने मानो मनु की परीक्षा
लेने को उर्वशी को उसके पास भेजा था
स्रष्टि का संचालन तो वह स्वयं करता है
इस बार उसने मनु को निमात्ति बना भेजा था 
अब वह जोरों से अट्ठाहस 
कर रहा मनु की दुर्दशा पर
क्यों किया था प्रणय निवेदन 
कर रहा वह करुण क्रंदन

इस प्रलय में मनु अकेला 
शिखर पर कर रहा क्रंदन 
अब उसे सान्तवना देने 
नही आएगी कोई उर्वशी
वह तो सदियों पहले 
बादलों के आगोश में खो गयी 
अब संकट में आ गया
मनु का अस्तित्व 
अब मनु कैसे 
उत्पन्न करेगें स्रष्टि 
जब उवर्शी का 
नही होगा अस्तित्व
नर का यह गुमान 
तब चला जायेगा 
और होगा सत्य का ज्ञान
तब विधाता सिर्फ मुस्कुराएगा
और फिर धरती पर नही संभव 
हो पायेगा मानव का जीवन 
मनु अब करें किसका आलिंगन
कर रहा वह करुण क्रंदन

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )