Monday, August 20, 2012

जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी



जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 
रात होने को सखी साँझ भी ढल गयी 
जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 
लौट आये बसेरों में परिंदे सभी 
जला चुके दीप घरों के बशिन्दें सभी 
अब बेला दियों की बुझने की आ गयी
 जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 

जो न मिलती ये नज़रें न इल्जाम लगता 
ये मेला मोहब्बत का हर शाम लगता 
क्यों दिल आता उनपे क्यों ख्वाब पलते 
नींद आती हमें भी जरा शाम ढलते 
हम चाँद को यूं निहारा किये रात भर 
बादलों के आगोश में चांदनी छुप गयी 
जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 

न भटक राह लौट के आजा तू बन्दे 
लौट आये सभी घोसलों के परिंदे 
सपने जब बुने तूने सजना के लिए 
फिर क्यों जला रखे है इस घर के दिए 
बाट जोहा किये उनकी राहों में हम 
बन बटोही गुजरेंगें संग उनके भी हम 
वो आये न सखी अब इन्तहा हो गयी 
जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

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