Monday, August 29, 2011

प्यार कम हो रहा था


मेरा अब उनसे बात करने का कुछ यूं सिलसिला कम हो रहा था
उनको न मिलता वक्त या यूं कहें की मुझसे प्यार कम हो रहा था
अब न रहीं पहले जैसी शिकवा शिकायतें न अब कोई ऐतबार था
हो चुके थे हम बावफा से बेवफा अब उनका कोई और तलबगार था
मै उनसे कहता कि ऐ जाने वफ़ा अब तुम पहले जैसे नही दिखते
वो कहते कुछ मेरी है मजबूरियां जिनको अब तुम नही समझते
ऐसी क्या थी उनकी मज़बूरी ये अब तक मै न क्यों समझ पा रहा था
........ कम हो रहा था
ये उसके हुस्न का जलवा था यारों या फिर मेरे दीवानेपन कि हद थी
वो हमे फिर से न मिलने कि कसम देती पर मेरी मिलने कि उससे जिद थी
मै खुद तो बेवफा हो सकता हूँ पर उसकी बेवफाई पर मुझे न यकीं था
छोड़ सकता हूँ दुनिया प्यार में तेरे पर तू छोड़ के जाएगी यकीं न था
पर किया तूने कुछ ऐसा कि सारे भरम मै खुद ही तोड़ रहा था .........
मेरा अब उनसे बात करने का कुछ यूं सिलसिला कम हो रहा था

तुझसे मिलने से पहले जीवन में पतझर न था और बहार न थीं
मै खुश न था पर ये मेरी आँखें भी किसी के प्यार में रोयीं न थी
नींदें थीं भरपूर आँखों में ये किसी के इंतजार में खुलीं न थीं 

अपनी दुनिया में थे हम मशगूल गम को जानने कि फुर्सत न थीं 
संदोह मिलने से पहले था वक्त कठिन तो जरूर पर जिए जा रहा था
मेरा अब उनसे बात करने का कुछ यूं सिलसिला कम हो रहा था 

                                                                                                                                          चिदानंद शुक्ल ( संदोह )

Monday, August 15, 2011

मै खुद को भूल जाता हूँ

मेरे महबूब जब तुम सामने आते हो मै खुद को भूल जाता हूँ
बहुत करता हूँ कोशिश मै संभलने की पर संभालना भूल जाता हूँ
तुम्हारे आने से फिजां में कुछ बदलाव आते है
जो छाई धूप होती है तो बदल घिर ही आते है
तुम्हारे आने पर पतझर बसंत हो जाता है
ये सूखे नयनो में बादल उमड़ आता है
न जाने क्या जादू है तेरी निगांहो में
मुरझाये फूल भी खिल उठते है बागों में
तुझसे मिलकर जो सकूं मिलता है ऐ मेरे हमदम
मै दुनिया के सभी ऐसो आराम भूल जाता हूँ
................ मै खुद को भूल जाता हूँ
तेरा दिल में जब भी कोई ख्याल आता है
बरबस ही आँखों से समुन्दर उतर ही आता है
मै रोक नही पाता इसको आँखों से गिर जाता है
एक अदद अश्रु मेरे सब्र को मिटा जाता है
तेरी वो मासूमियत भरी निगाहें जब भी किसी ओर उठती
हर कोई बेचैन हो उठता जब तू किसी राह से गुजरती
पर आते हो जब तुम मेरे सपनों में बनकर मेरे महबूब
होते है अनेको प्रश्न जिनको पूछना मै भूल जाता हूँ
..............................मै खुद को भूल जाता हूँ
मै मुस्कुराता हूँ की न जाने कोई मेरे गम के बारे में
टूट चुका है आशियाँ मेरा न जाने कोई इसके बारे में
ये दुनिया बड़ी जालिम है हर गम में मज़ा ढूंढ़ लेती है
न चाहो इसको कुछ भी बताना फिर भी फ़साना ढूंढ़ लेती है
संदोह अब डर लगता है मरने में कहीं वो बदनाम न हो जाये
मै करता हूँ तुझसे प्यार ये खबर सरे आम न हो जाये
ये होते है ऐसे अनुत्तरित प्रश्न जिनमे मै झूल जाता हूँ
....................... .मै खुद को भूल जाता हूँ
चिदानंद शुक्ल ( संदोह )

Friday, August 5, 2011

शामें अवध



लखनऊ तेरे नजारों का अज़ब आलम है
शेख रूमानी किनारों का अज़ब आलम है
लखनऊ शहर की रौनक है राज़दां है तू
नाज़नी जलपरीं शरबतीं शमां है तू
तेरे पहलू में महल है बाग है मीनारें है
कामदनी के बनावट में टांके सितारें है
कभी पानी में नगीनों की आब रहती थी
एक नशा था जैसे शराब बहती थी
हाय उससे कोई पूछे हुस्ने लाजवाब तेरा
जिस किसी ने भी देखा हो शबाब तेरा
देख कर न भूल पायेगा तेरी शाम कोई
अवध की शाम या छलका हुआ जाम कोई
चिदानंद ( संदोह )

सावन की काली रात

सावन की काली रातों में जब घनघोर घटा घिर आती है
जब नभ में चाँद नही रहता और याद तुम्हरी आती है
तब ऐसा कुछ होता है मेरा मन चंचल हो उठता है
मै रोक सकूं न इसको जो तुझ संग निकल पड़ता है
न लोक लाज का भय लगता न लगें डर आंधी और तूफानों से
चल पड़ता एक अपरिचित पथ पर हो कर संग बेगानों के
जब बिजली जोरों से कडकती है मन में सिरहन आ जाती है
एक नई नवेली दुल्हन तब मेरे खवाबों में आ जाती है
तत्क्षण गिरतीं बूंदे पानी की मेरी नींद उचट तब जाती है
फिर सारा संशय मिट जाता है विरह सागर में डूब जाता हूँ
तू होकर के मेरा न हो सका मेरा मन में मै पक्षताता हूँ
तब बारिश का पानी भी अश्रु के संग घुल जाता है
अब सब कुछ छोड़ के आजा दिल बर मन मेरा घबराता है
पर तू तो होगी रकीबों के संग तुझको याद कहा है आती
मै भूल रहा हूँ उसको जितना उतना ही याद क्यों आती
तुझ संग प्रीत लगा कर मैंने खुद पर एक अहसान किया
भूल गया मै खुद को लेकिन जुबाँ पर तेरा ही नाम लिया
मै बावफा न रहा बेवफा का इलज़ाम दे मुझे
कत्ल कर दे तू मेरा अब ये तो ईनाम दे मुझे
पर नही तू ऐसा नही करेगी तू तो तडपायेगी मुझे
न आएगी पास मेरे न अपनी यादों को दूर ले जाएगी
तू तो मेरी मौत में भी अपने यार के संग जश्न मनाएगी
संदोह छोड़ दे अब उससे मिलने की आशा
शिखा तुझको शिखर से खीच लाएगी
जब हुआ सबेरा तो दिल की धड़कन बंद हो जाती है
सावन की काली रातों में जब घनघोर घटा घिर आती है

चिदानंद संदोह

भक्त की अभिलाषा

हो रहा है अत्याचार भक्तजनों पर भारी क्यों आकर अब देते नही दर्शन मेरे मुरारी
क्या वादा भूल गये मेरे गिरधर कहा हो तुम असुरारी
रावण को मारा था तुमने धरती को शोक विमुक्त किया
परशुराम बनकर के तूने सहश्त्र बाहू का नाश किया
जब राजाओ ने अत्याचार किया तूने है उनका नाश किया
अब क्यों देर लगायी है प्रभुवर जब नेताओ ने धर्म पर वार किया
अब संत को मारा जाता है आतंकी चैन से सोते है
रामभक्त ठग कहलाता है ओसामा आदर पाते है
चन्द जयचन्दों की वजह से पृथ्वीराज मारे जाते है
हम लड़े तो किससे लड़े हे गिरवर जब भाई ही राज बताते है
अब नही रहा खतरा गोरी से पर जयचंदों से हार गये
अब किससे करें शिकायत शिकवा जब अपने ही अपनों को मार गये
आरक्षण की रोटी देकर दलित सवर्ण को लड़ाते है
मंदिर मस्जिद की ओट लेकर आपस में दंगा भड़काते है
अब कब तक चुप रहोगे नटवर किसी रूप में अवतार लो
दुष्ट जनों का करके संहार भारतभूमि को उबार लो
संदोह अब करें प्राथना आ जाओ अब हे गिरधारी
क्यों आकर अब देते नही दर्शन मेरे मुरारी

चिदानंद शुक्ल ( संदोह )