Monday, August 20, 2012

लगा ना जी पायेंगें

वह थी भादों की रात पड़ा जब दिल को था आघात लगा ना जी पायेंगें 
शिथिल हुई थी देह मगर मस्तिस्क में उपजा नेह तेरे बिन कैसे जायेंगें 

समय नही था पास मगर थी मोहि पिया मिलन की प्यास 
अब करता किसकी आस संदेसा लिखना था कुछ खास 
उभरे मस्तिस्क मे
ं अहसास कलम अब भी है मेरे पास
कभी अपने थे रिश्ते खास मेरे मस्तिस्क को है विश्वास

संदेसा पाकर मेरा वो तुरत दौड़े आयेंगें लगा ना जी पायेंगें
शिथिल हुई थी देह मगर मस्तिस्क में उपजा नेह तेरे बिन कैसे जायेंगें

घटा चढी अम्बर घनघोर वन में मग्न हो नाँचे मोर
दामिनी दमक रही है जोर फैला चारों ओर अजोर
मानो अभी हो गया भोर खोया चन्दा संग चकोर
नयना फड़के मेरे जोर हिय में उठने लगी हिलोर

मौत कलम बिच लग गयी होर सजन मेरे आयेंगें लगा ना जी पायेंगें
शिथिल हुई थी देह मगर मस्तिस्क में उपजा नेह तेरे बिन कैसे जायेंगें

ख़त का आखिरी सोपान था ये घर बना शमशान था
ये विडंबना थी कोई प्रकृति की या स्वप्न भान का था
लगा कुछ आहट सी हुई किसी ने द्वार पर दस्तक दई
खोला जब किवाड़ मैंने सम्मुख दिल का मेहमान था

संदोह मोह जीत गया अब यम पाश से बच जायेंगें ,, लगा जी पायेंगें
शिथिल हुई थी देह मगर मस्तिस्क में उपजा नेह तेरे बिन कैसे जायेंगें

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

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