मुझे प्रीत की रीत सिखा दें प्रिये
मै भटकूँ क्यों अब गली गली
रीत नही जानू मै इसकी
क्यों भँवरा झूमें कली कली
नदिया जा सागर से मिलती
साथ छोड़ कर क्यों मौंजों का
कविता कवि का साथ छोड़
क्यों साथ दे रही सरगम का
छल प्रपंच इस प्यार का थोडा
मुझको भी सिखला दे प्रिये
मुझे प्रीत की रीत सिखा दें प्रिये
पिय के प्यार में होकर पागल
अंखियाँ बरस रही ज्यों बादल
स्वाति नक्षत्र तक ये हो गयी रूखी
अब क्यों पियु रटे पपीहा जोगी
पपीहा को ये बतला दे प्रिये
क्यों निशर्त यह प्यार प्रिये
मुझे प्रीत की रीत सिखा दें प्रिये
कुञ्ज गलिन में राधा भटके
कान्हा मथुरा में रास रचाते
छोड़ गये क्यों उसको तनहा
लौट के गोकुल क्यों नही आते
त्याग तपस्या और समर्पण
किसी एक के हिस्से ही क्यों आते
संदोह कहें उस मीत से ये अब
क्यों प्रीत की रीत झुठलाती हो प्रिये
मुझे प्रीत की रीत सिखा दें प्रिये
चिदानन्द शुक्ल (संदोह )