Tuesday, February 21, 2012

मुझे प्रीत की रीत सिखा दें प्रिये


मुझे प्रीत की रीत सिखा दें प्रिये 
मै भटकूँ क्यों अब गली गली 
रीत नही जानू मै इसकी 
क्यों भँवरा झूमें कली कली 
नदिया जा सागर से मिलती 
साथ छोड़ कर क्यों मौंजों का 
कविता कवि का साथ छोड़ 
क्यों साथ दे रही सरगम का 
छल प्रपंच इस प्यार का थोडा 
मुझको भी सिखला दे प्रिये 
मुझे प्रीत की रीत सिखा दें प्रिये 

पिय के प्यार में होकर पागल 
अंखियाँ बरस रही ज्यों बादल
स्वाति नक्षत्र तक ये हो गयी रूखी 
अब क्यों पियु  रटे पपीहा जोगी 
पपीहा को ये बतला दे प्रिये 
क्यों निशर्त यह  प्यार प्रिये 
मुझे प्रीत की रीत सिखा दें प्रिये 

 कुञ्ज गलिन में राधा भटके
कान्हा मथुरा में रास रचाते 
छोड़ गये क्यों उसको तनहा 
लौट के गोकुल क्यों नही आते 
त्याग तपस्या और समर्पण 
किसी एक के हिस्से ही क्यों आते 
संदोह कहें उस मीत से ये अब 
क्यों प्रीत की रीत झुठलाती हो प्रिये  
मुझे प्रीत की रीत सिखा दें प्रिये 

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

Saturday, February 18, 2012

पिय मोर कहाँ अब जाय रह्यो

पिय मोर कहाँ अब जाय रह्यो

घन घोर घमंड किये बरसे 

भय लागत है अब तो हमको

नहि जाउ पिया अपने घर से

बिजुली यह जोरन से तडपे

हिय मोर पिया नहि है हरषे

धन की अब है मोहि चाह नहीं

समझाय रही पिय को तबसे 



चिदानंद शुक्ल (संदोह )