Monday, August 20, 2012

कोऊ संगी से आस लगा बैठा

कोऊ संगी तलाश रहा जग में कोऊ संगी से आस लगा बैठा 
जब है सफर में कोई साथ नही फिर तू किसकी आस लगा बैठा 

जब आये धरा पर रोते हुए सब देख प्रसन्न तुझे है हुए 
जग को तू समझ सका नहि बंदे रुदन में दीप है जले हुए 
जब जब है संकट आया तुझ पे तब तब
 ये सुखी संसार हुआ
फिर क्यों आस लगायी जग से जब साथ तेरे नहि कोई हुआ

ये जग सराय हम सभी है मुसाफिर फिर क्यों इसको घर तू समझ बैठा
जब है सफर में कोई साथ नही फिर तू किसकी आस लगा बैठा

ये मोह भरी दुर्गम नगरी यहाँ पग-पग पर छलिये बैठे है
कहीं नारी खड़ी वट ओट मिले कहीं सुत मार कुंडली बैठे है
रे प्राणी पथ से न भटकना ये माया पति श्री हरी की माया
नारद सम ध्यानी भी फँस गये जब हरि ने विश्व मोहनी रूप बनाया

कितना नादान बना बन्दे तू क्यों नश्वर को है अमर समझ बैठा
जब है सफर में कोई साथ नही फिर तू किसकी आस लगा बैठा

बचपन बीता खेल कूद कर यौवन तिरिया संग प्रीत बढाई
देख बुढ़ापा अब क्यों रोते हो पहले हरी की याद न आयी
अपना उद्देश्य कभी मत भूलो बस किरदार निभाते रहना .
संदोह मोह भ्रम उसे न होवे ज्ञान का दीप दिखाते रहना

जब समय हुआ पूरा तेरा फिर क्यों कुछ स्वास की आस लगा बैठा
जब है सफर में कोई साथ नही फिर तू किसकी आस लगा बैठा

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

लगा ना जी पायेंगें

वह थी भादों की रात पड़ा जब दिल को था आघात लगा ना जी पायेंगें 
शिथिल हुई थी देह मगर मस्तिस्क में उपजा नेह तेरे बिन कैसे जायेंगें 

समय नही था पास मगर थी मोहि पिया मिलन की प्यास 
अब करता किसकी आस संदेसा लिखना था कुछ खास 
उभरे मस्तिस्क मे
ं अहसास कलम अब भी है मेरे पास
कभी अपने थे रिश्ते खास मेरे मस्तिस्क को है विश्वास

संदेसा पाकर मेरा वो तुरत दौड़े आयेंगें लगा ना जी पायेंगें
शिथिल हुई थी देह मगर मस्तिस्क में उपजा नेह तेरे बिन कैसे जायेंगें

घटा चढी अम्बर घनघोर वन में मग्न हो नाँचे मोर
दामिनी दमक रही है जोर फैला चारों ओर अजोर
मानो अभी हो गया भोर खोया चन्दा संग चकोर
नयना फड़के मेरे जोर हिय में उठने लगी हिलोर

मौत कलम बिच लग गयी होर सजन मेरे आयेंगें लगा ना जी पायेंगें
शिथिल हुई थी देह मगर मस्तिस्क में उपजा नेह तेरे बिन कैसे जायेंगें

ख़त का आखिरी सोपान था ये घर बना शमशान था
ये विडंबना थी कोई प्रकृति की या स्वप्न भान का था
लगा कुछ आहट सी हुई किसी ने द्वार पर दस्तक दई
खोला जब किवाड़ मैंने सम्मुख दिल का मेहमान था

संदोह मोह जीत गया अब यम पाश से बच जायेंगें ,, लगा जी पायेंगें
शिथिल हुई थी देह मगर मस्तिस्क में उपजा नेह तेरे बिन कैसे जायेंगें

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी



जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 
रात होने को सखी साँझ भी ढल गयी 
जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 
लौट आये बसेरों में परिंदे सभी 
जला चुके दीप घरों के बशिन्दें सभी 
अब बेला दियों की बुझने की आ गयी
 जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 

जो न मिलती ये नज़रें न इल्जाम लगता 
ये मेला मोहब्बत का हर शाम लगता 
क्यों दिल आता उनपे क्यों ख्वाब पलते 
नींद आती हमें भी जरा शाम ढलते 
हम चाँद को यूं निहारा किये रात भर 
बादलों के आगोश में चांदनी छुप गयी 
जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 

न भटक राह लौट के आजा तू बन्दे 
लौट आये सभी घोसलों के परिंदे 
सपने जब बुने तूने सजना के लिए 
फिर क्यों जला रखे है इस घर के दिए 
बाट जोहा किये उनकी राहों में हम 
बन बटोही गुजरेंगें संग उनके भी हम 
वो आये न सखी अब इन्तहा हो गयी 
जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

मुक्तक

बनाते नित नये रिश्ते पुरानों की दुहाई से 
हंगामा नही होता कभी गाढ़ी कमाई से 
पीते हो हमारी ही हमें बदनाम करते हो 
पिलायी मुझको यारों ने कहते हो लुगाई से 

बहुत कुछ कहने को है मगर चुपचाप बैठा हूँ 
फ़साने मुझको भी मालुम है मगर चुपचाप बैठा हूँ 
नही कहता हूँ बेवफा तुमको ये इन्तहा मेरे मोहब्बत की 
तू आज भी मिलती छुप छुप के यारों से मगर चुपचाप बैठा हूँ 

मै आज लिक्खूंगा कलम से बहुत सी बातें
बीतती है कैसे मेरी ये काली स्याह सी राते
खामोश थे जब तक बहुत छेड़ा किये हमको
जो बोले आज महफ़िल में सरे आम होंगी बहुत सी बातें

चिदानंद शुक्ल "संदोह "

घनाक्षरी छंद

मित्रों आज भाद्रपक्ष के प्रथम सोमवार को सृजित यह घनाक्षरी छंद हमारे आराध्य देव भगवान भोले 
नाथ के चरणों में निवेदित है 

हर हर महादेव

जाके साथ भोलेनाथ कैसे होगा वो अनाथ 
कालों के भी काल जाके बने रखवारी है 
संग गिरिजा है जाके द्वारपाल नंदी ताके
हस्त में त्रिशूल वाके भाल चन्द्र धारी है 
कंठ में भुजंग रहे जटा बिच गंग बहे 
देख देव दंग रहे ऐसे त्रिपुरारी है
भूमि पापियों से भारी आओ काशी के खरारी
सुनो विनती हमारी बढ़े अत्याचारी है

चिदानंद शुक्ल "संदोह "

Sunday, August 19, 2012

हरिगीतिका छंद



मातु शारदे के चरणों में प्रस्तुत है दो हरिगीतिका छंद आप सब के विचार आमंत्रित है


माँ शारदे कर दे दया तू ,, द्वार तेरे हूँ खड़ा
अब छोड़ सबकी आस माता ,, शरण तेरी हूँ पड़ा
निज खोल झोली ये भिखारी ,, भीख मांगे ज्ञान की
थोड़ी नज़र फेरो इधर भी ,, प्रिय करुणा निधान की

काव्य महारथियों ने मिलकर ,, व्यूह कुछ ऐसा रचा
मै शब्द बाणो से बींधा हूँ ,,तीर नहि तरकश बचा
रसना बसों यदि आज अम्बे ,, पूर्ण सारे काज हों
जो अभी तक है वार करता ,, साथ विद्वत समाज हो

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

सिंहावलोकन सवैया छंद रसना

मित्रों एक सिंहावलोकन सवैया छंद लिखा है माँ वागेश्वरी को समर्पित है आप सबके विचार जानना चाहता हूँ 

रसना रस धार बने जिससे जगदंब सदा रसना बसना 
बसना मधुसूदन बाँसुरि ले जिससे हिय दूर रहे तिशना
तिशना जब नाहि बचे हिय में यम की तब फांस नही फसना 
फसना नहि मोह कभी हमको बस अम्ब सदा बसना रसना 

चिदानन्द शुक्ल "संदोह"

मुक्तक


मुक्तक 

जब भी आये हम उस पार दरिया के तुम इस पार होते हो
तुम्हारे थे तुम्हारे है बेकार की बातों में क्यों खार होते हो
माना की तनहा थे तुम तो हम भी महफिलो में न थे
संदोह हर दम साथ है क्यों इस तरह जार जार होते हो

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

पहचान हमारी मिटायेगें कैसे



माना की आप को कई दूसरे मिल गये हम जैसे
पर कुछ पहचान हमारी भी है उसे मिटायेगें कैसे

यूं कि इन रिश्तों में लचक तो बहुत होती है ऐ दोस्त
पर जो झुक गया आपके सामने उसे झुकाएंगें कैसे

पैसे का मोल बहुत है आपकी नज़रों में ये सच है
पर जो हमने आपको दिया खैरात में वो चुकायेंगें कैसे

आपकी महफ़िल बड़ी हो गयी और आप नामचीन हो गये
पर जो साथ थे तन्हाई में उनसे पीछा छुड़ायेगें कैसे

लगता है अब आप मिटा देना चाहते है सारे निशा मेरे
छाप मैंने जो छोड़ी है दिल पर तेरे उसे हटायेंगें कैसे

धोखा दिया है हमने या जागीर छीन ली तुम्हारी
गर ये सच भी है तो इसे सबको बतायेंगें कैसे

कभी दिलदार को छोड़ा एक अजनबी यार के लिए
संदोह ये बाते अपनी जुबाँ से किसी को सुनायेंगें कैसे

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

मत्तगयन्द सवैया छंद


मित्रों एक मत्तगयन्द सवैया छंद लिखा है जो आपके सम्मुख प्रस्तुत है यह 23 वर्णों का छन्द होता है, जिसमें सात भगण (ऽ।।) और दो गुरुओं का योग होता है।

नैन विशाल हवे जिनके सखि मोर पखा सिर सोह रही है
है अधरों बिच बांसुरि शोभित ऐसन मूरत मोह रही है
भूलि गयो वह गोकुल श्यामहि गोपिन खोजत खोह रही है
बँवरि हो वृषभान लली अब बाट तिहारहि जोह रही है

चिदानंद शुक्ल (संदोह ) 

चिड़ियों को बाज लिए बैठे है


फूल जिनकी राहों में बिछाते गये हम 
आज वही काँटों का ताज लिए बैठे है

भरोसे से जिन को राजे दिल बताया 
आज वही दुश्मनों को राज दिए बैठे है 

जो हँसते थे कल तक शाहजहाँ पर
आज देखा बाग में मुमताज़ लिए बैठे है 

संगीत से जो न वाकिफ थे नामुराद 
आज वही महफ़िल में साज लिए बैठे है

किस गुलिस्ता कि बात करते हो संदोह
हर डाल यहाँ चिड़ियों को बाज लिए बैठे है

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

मत्गयंद सवैया छंद


मित्रों सावन के पहले सोमवार की आप लोगों को हार्दिक शुभकामनायें भगवान भोलेनाथ आप सबकी मनोकामना पूर्ण करें हमारे आराध्य देव देवादिदेव भगवान भोलेनाथ के चरणों में एक मत्गयंद सवैया छंद निवेदित है

औघड़ शम्भु हवे हमरे नित , भंग धतूरहि भोग लगावें
कंठन सर्पहि माल सुशोभित , दर्शन दर्पहि दूर भगावें
काल कराल सदा जिनके बस, वह अभयंकर नाथ कहावें
मोह न व्यापित हो हमरे मन ,ऐसन ज्ञानहि दीप जगावें

चिदानन्दशुक्ल (संदोह )

मत्तगयन्द सवैया छन्द , सुन्दरी सवैया छन्द


मित्रों आज कई दिनों से कुछ लिखा नही जा रहा था तो आचानक ध्रुव का प्रसंग याद आ गया उसी पर दो सवैया छन्द लिखे है पहला मत्तगयन्द सवैया 23 वर्णों का छन्द है, जिसमें सात भगण (ऽ।।) और दो गुरुओं का योग होता है। और दूसरा सुन्दरी सवैया छन्द जो 25 वर्णों का और इसमें आठ सगणों तथा गुरु का योग होता है।

मत्तगयन्द सवैया छन्द
रोवत बालक मातु समीपहि जाकर के यह बैन उचारो
खेलन आज गयो नृप द्वारहि राजन गोद हमे है बिठ
ारो
देख हमे लघु मातहि ने तब जोरहि मोरहि कान उखारो
और कहा नहि बैठ सको तुम बैठत है यह पुत्र हमारो

सुन्दरी सवैया छन्द
समझाय रही सुत को अपने जनि शोक करो हिय में अपने है
नृप गोद उतार दियो तुमको उपकार प्रभूत किया उनने है
सुमिरो हरि को मन धरिके वह पूर्ण करे सबही सपने है
तप जाय करो वन में हरि का हरिहे सब संकट वो जितने है

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

दिल की किताब मांग बैठे


साथ गुजरे पल का वह हिसाब मांग बैठे
कैसे लाऊं मै वो दिल की किताब मांग बैठे

पिलाते थे अपने चश्मों से रोज जाम जो
वो मुझसे ही देखो आज शराब मांग बैठे

कैसे करूं मै पूरी ये आरजू सनम की
रेगिस्तान में वो मुझसे गुलाब मांग बैठे

तडपते रहे दिन रात जिनकी यादों में
वो अपने आसुंओं का हिसाब मांग बैठे

दिल के जख्मों को ले अब तक जी रहा था
आते ही आज देखों अपना ख्वाब मांग बैठे

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

Sunday, July 8, 2012

औघड़ शम्भु हवे हमरे नित , भंग धतूरहि भोग लगावें
कंठन सर्पहि माल सुशोभित , दर्शन दर्पहि दूर भगावें
काल कराल सदा जिनके बस, वह अभयंकर नाथ कहावें 
मोह न व्यापित हो हमरे मन ,ऐसन ज्ञानहि दीप जगावें 


चिदानन्दशुक्ल (संदोह )

Thursday, June 28, 2012

श्याम तूने जो बंशी बजायी न होती

श्याम तूने जो बंशी बजायी न होती 
तो सखियों संग राधा अकेली न होती 
न दिल उसका आता तेरे पर ऐ मोहन 
न राहों में वह बावरी बन मचलती 
तेरी बंशी ने उसपर ये जादू किया है 
तन मन की सुध खोई रटे पिया पिया है 
हुई क्या खता मेरी सखी से ऐ नटखट
छीन उसका चैन ये दर्द क्यों दिया है
भूल जाती तुझको वो याद नही करती
प्रीत की रीति जो सिखायी न होती
मझधार में छोड़ के जो जाना था कन्हैय्या
प्यार क्यों किया हमसे बंशी के बजैय्या
तोड़ मेरी मटकी रोज पनघट पर सताते थे
भूल गयो सारी बातें क्या यशुदा के छैय्या
आज मेरी कान्हा ये जग हँसाई न होती
श्याम तूने जो बंशी बजायी न होती

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

बात देखो मेरी अब कहाँ तक जाएगी

बात देखो मेरी अब कहाँ तक जाएगी 
निकली जो जुबाँ से दूर तक जाएगी 

रही मेरे सीने में दफ़न जब तलक 
डर रहा बन के आंसू निकल जाएगी 

ख्वाब में जब सजाया यह सोचकर 
वह सपनों में मेरे कभी तो आएगी 

प्यार करता रहा पत्थर से यह सोचकर 
एक न एक दिन तो खुदा वह बन जाएगी 

खुद से भरोसा हटा उसपर भरोसा किया 
क्या खबर थी कि वह अब बदल जाएगी 

जिन्दगी जी रहा था धुएं के पेड़ पर 
संदोह तेरी सिगरेट अब बुझ जाएगी



चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

सवैया छंद

विधना लिखि लेख ललाट दिया तब कौन मिटाय विधी लिखना 
लिखना जब भाग्य रहा धन था तब खोय मयूर गयो पखना 
पखना जब खोय गयो विधि से तब छूट गयो उनका लिखना 
लिखना पखना विधि बंद हुआ तब संकट घोर मिटा विधना




चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

यूं तो जीने की हसरत न बची मुझमें

यूं तो जीने की हसरत न बची मुझमें 
तेरे अहसानों के लिए जिए जा रहा हूँ .........१

गर मौत आती है समय से पहले मेरी 
अपनी कलम तेरे नाम किये जा रहा हूँ .........२ 

बहुत अहसान है तेरे मुझ पर ऐ दोस्त 
उसके बदले में चंद आँसूं दिए जा रहा हूँ ..........३ 

कहीं बंद न हो जाये धड़कन बातो बातो में 
हर जाम में तेरा नाम साकी लिए जा रहा हूँ ........४

वो देखो सुदूर बादलों से कोई बुला रहा है .
अब रोक मत संदोह उसके पास जा रहा हूँ ..........५
०१/०५/२०१२
चिदानंद शुक्ल (संदोह )

मत्तगयन्द सवैया छन्द

जो छठि रात ललाट लिखा विधि ,,मेट सके नहि लेखन कोई 
भाग्य लिखा जब रामसिया वन ,,राज कहाँ उनके मन होई 
वास करे मुनि वेश धरे वह ,,पंचवटी कुटिया जन सोई 
ब्रम्ह लिपी नहि मेट सके हरि,, लेख विधी कुछ ऐसन होई 

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

दुर्मिल सवैया

कछु प्रीत रही उनके मन में तबही वह मोहि बुलाय रहे 
रख आँचल में हमरे सिर को निज केश कि छांव सुलाय रहे 
सब भूल गये वह शूल सभी उनको जब बाँह झुलाय रहे
यह प्रेम अप्रितम है उनका नयना सुख आँसु रूलाय रहे 

चिदानंद शुक्ल "सनदोह "

दुर्मिल सवैया



हम खोज रहे कल थे जिनको वह आज सखी घर आय रहे 
जब सम्मुख देख लिया पिय को नयना तब नीर बहाय रहे 
कह खोय गये पिय थे हमरे तुमरे बिनु कौन सहाय रहे 
वह पाँश नही अब पास सखी जिससे पिय मोर लुकाय रहे 

चिदानंद शुक्ल "संदोह "

जनाब अपना बताये मेरा हाल मत पूछिए


जख्म गहरे है अब इन्हें और मत कुरेदिए 
जनाब अपना बताये मेरा हाल मत पूछिए

तुम्हारे अहसानों से दबा अभी तक हूँ जिन्दा 
जिन्दगी कैसी है मेरे दोस्त अब ये मत पूछिए

जाने क्यूं हर हसीं में तेरा अक्स नजर आता है
बेचैन हो उठता हूँ जरा सी आहट से मत पूछिए

हर शाम गुज़र जाती मय खाने में जाम के संग
रात तन्हा गुजरती है कैसे अब ये मत पूछिए

मंजिल तय करने की ठानी है उनके साथ यारों
वो मिले नही हमसे अब तक क्यों ये मत पूछिए


संदोह के मुक़द्दर में तो वो कभी थी ही नही
बना लिया है किस्मत उसको क्यों ये मत पूछिए

बगावत करना जहां से मेरी आदत में शुमार है
साथ कोई होगा या न होगा ये मत पूछिए

चिदानन्द शुक्ल "संदोह

सूरज भी नही रुकता दिन ढल जाने के बाद

जाने किस पल बुला ले हमको खुदा मेरा 
बहुत जख्म खाएं है उसके जुदा होने के बाद 

अरे जितने दिन है साथ तेरे बात कर लें 
गुमसुम सा रह जायेगा मेरे जाने के बाद 

रौशन रक्खा है दिए ने जल के महफ़िल को 
कीमत पता चलती चिराग की बुझने के बाद 

जब वक्त अच्छा हो तो सभी साथ देते है 
खोटा सिक्का याद है सब कुछ खोने के बाद

यहाँ अभी कितनी बाजी और हारेगा संदोह
सूरज भी नही रुकता दिन ढल जाने के बाद

चिदानन्द शुक्ल "संदोह "

जीवन की उठापटक बदस्तूर जारी है

जीवन की उठापटक 
बदस्तूर जारी है 
आज ख़ुशी चेहरे पर 
कल मायूसी की तैयारी है 
हर सुबह एक नई 
शुरआत के साथ 
करेंगें जिन्दगी का आरम्भ 
यह सोच कर उठते 
है जनाब 
पर शाम होते होते 
मन में फिर से
पाल लेते है
जाने क्यों
अनगिनत ख्वाब
ये कैसी मानव
जीवन की लाचारी है
********************
दोहरा किरदार
कितना फबता है
अब हर आदमी पर
दिन में सदाचार की
बातें रात को
जाता कोठे पर
मदिरा पान गलत
है कहता
बिन मदिरा
के वह नही रहता
वादे और इरादे में
किसका पलड़ा
भारी है *****
जीवन की उठापटक
बदस्तूर जारी है
****************

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

दुर्मिल सवैया

(१ )
गहि पाँव रही वह नारि सती;, जनि द्रोह पिया हरि संग करो 
तजि के अपनी हठ आज पिया ,,तुम राम रमापति मेल वरो
सुत मार हमार दिया जिनने ,,पल में सगरी यह लंक जरो
वह दूत रहा रघुराज पिये ;;अब तो हरि से कछु स्वामि डरो
********************************************************
(२ )
सच लोग कहें अबला तुमको ,,जनि पाल रही मन में भय को
सुनि नाम हमार शची पति को,, डर लागत है उनको शय को
दिगपालहि, कालहि सेवक है ,,विजयी रण में हमसे हय को
शिव शम्भु सहाय सदा हमरे,, बहु शीश चढ़ाय रहे जय को

चिदानन्द शुक्ल "संदोह "

दो दोस्तों की मन की बातें .......दो दोस्तों की कलम से


दो दोस्तों की मन की बातें .......दो दोस्तों की कलम से

ये भी खूब रही आये बैठे और दामन छुड़ाकर चल दिए

दोस्त कहा और दो दिन की बात कह कर चल दिए

क्या करते बैठ कर साथ अपना जहां को गवारा न था

इलज़ाम न दें तुमको कोई यह सोच रास्ते बदल दिए

तोहमत का किसी इल्जाम का कोई डर नही मुझे

कि कुछ पल के तेरे साथ ने हौसले बुलंद कर दिए

तो आओ साथ एक बार फिर सब छोड़ हम चलें

तेरे हौसले ने मेरे सारे डर,सारे वहम ख़त्म कर दिए

संदोह & विधु
 
जब होउँ सुपुर्दे खाक उन्हें खबर मत करना 
ताउम्र तड़पी है नज़रे उनके दीदार के लिए 
सकूँ से सोयेंगें कब्र में कयामत तक संदोह 
अब दवा कि जरूरत नही इस बीमार के लिए 

चिदानंद शुक्ल "संदोह "

सुंदरी सवैया



तकि राह रहे सखि श्याम हवे यमुना तट मोहि जल्दी अब जाना 
नभ मंडल घेर रही बदरी सखि आज विधी उलटे सब ठाना
कल कान्ह कहें हमसे सखि री तुम प्रान पिये मत देर लगाना 
अब कौन सहाय बचो हमरो तुमको विधिना हमको पहुचाना

चिदानन्द शुक्ल "सनदोह"

ललकार लिखूं जयकार लिखूं

ललकार लिखूं जयकार लिखूं या जनता का हाहाकार लिखूं 
बेबस आज कलम मेरी है इससे क्या अब कुछ खास लिखूं 

पेट्रोल बढ़ा डीजल भी बढेगा गर्मी में पारा और चढ़ेगा 
घासलेट की बात न करना डंडा सर पर जोर पड़ेगा 
गरीब हटाओ गरीबी हटेगी तभी तो अपनी साख जमेगी 
इस महगाई में कब तक मुनिया बच्चों का यूं पेट भरेगी 

कब होगी मौत भूख से उसकी उस पर कोई विचार लिखूं 
ललकार लिखूं जयकार लिखूं या जनता का हाहाकार लिखूं 

कलम की स्याही हो गयी महंगी कागज के भी दाम बढे
मेवा किसमिस की बात न करना आलू मटर के भाव चढ़े
जेब भर रही जब पूंजीपतियों का कौन तुम्हारा ध्यान करें
सो जा चुपचाप आँख बंद कर के नेताओं से क्यूं न डरें

घोटाला लिखूं टू जी का या ऐ राजा का राज लिखूं
ललकार लिखूं जयकार लिखूं या जनता का हाहाकार लिखूं

पहले गोरी ने लूटा फिर मुगलों ने अत्याचार किया
अंग्रेजों ने आकर फिर भारत माँ की अस्मत से खिलवाड़ किया
कब तक चुपचाप रहोगे यारों अब हुँकार भरों तुम भारी
रणचंडी फिर आयेंगी जब भान करों तुम शक्ति तुम्हारी

क्रांति लिखूं जन भ्रान्ति लिखूं या निर्मल का चमत्कार लिखूं
ललकार लिखूं जयकार लिखूं या जनता का हाहाकार लिखूं

चिदानन्द "संदोह "

घनाक्षरी छंद



रेल रहे रोक जब व्याकुल हो लोग सब
तेल के ये खेल पर राजनीति भारी है 
कोऊ देत उन्हें दोष कोऊ करे भारी रोष 
भ्रष्ट हुए लोग वे जो बने सरकारी है 
थाली से गायब दाल नेता सारे मालामाल 
रोटी खाओ सूखी सब लुप्त तरकारी है 
भारत कल बंद है विपक्ष को घमंड है 
आज उसके पक्ष में सभी नर नारी है 

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

हम तुम्हें भूल जायेंगें

तुम्हें क्या लगता है 
हम तुम्हें भूल जायेंगें 
या फिर ख्वाबों में तुम्हारे 
बन के सपना आयेंगें 
मै सपना नही 
हकीक़त हूँ 
अब छोडो उसको 
जो सपना था 
कभी नही अपना था 
जो अपना है 
उसे हो भूल बैठे
क्यों बेकार में
अपने चेहरे पर
जमा कर धूल बैठे
बना लो मुझको अपना
सारे शूल निर्मूल हो जायेंगें
तुम्हें क्या लगता है
हम तुम्हें भूल जायेंगें
**************************

अब ये सब कैसे कहें
तुम ठहरे कुएँ के मेढक
जो अब तक कुँए में ही रहें
आओ हमारे साथ
तुम्हें जीने का एक
नया अंदाज मिलेगा
दरिया की क्या बात है
सागर का तुम्हें राज मिलेगा
पर कहीं यें मत सोचना
तुम्हारी पहचान
विलुप्त हो जाएगी
कुएं से निकलते ही
तुम्हारी गहराई
कम हो जाएगी
तुम्हारे साथ कई
जन्मों का रिश्ता
तय कर जायेंगें
तुम्हें क्या लगता है
हम तुम्हें भूल जायेंगें
*********************
पर कहीं ऐसा न हो
आज हमें तेरा इंतजार है
कल तुम मेरी खबर लो
और मै खबर बन जाऊं
उस समय क्या होगा
सिर्फ एक अफ़सोस
जब हो जायेंगें सदा
के लिए हम खामोश
उस समय तुम सोचो ऐ काश
पहले ही अगर होता अहसास
बन जाती तेरा गीत
नही खोती अपना मीत
शायद यही वजह है
लिखने का यह गीत
भरोसा करो उस पर
है जो तुम्हारा मीत
संदोह साथ मिल
ये संगीत गाएंगें
तुम्हें क्या लगता है
हम तुम्हें भूल जायेंगें

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

मैंने लिखी एक कविता


अभी आज ही मैंने लिखी 
एक कविता 
पर कुछ शब्द उसमें ऐसे थे 
जो सत्य से परे
कुछ ने तो तारीफ की 
और कहा
शुक्ल जी जैसे बहा दी हो 
ज्ञान सरिता 
पर आलोचना भी हुई
कुछ को लगा जैसे शब्दों
को मरोड़ा गया हो और
कहा क्षमा सहित कहता हूँ
शुक्ल जी ये है समझ से परे
हमें आभास हुआ
थोडा सा निराश हुआ
फिर मन से आवाज आयी
जो हुआ अच्छा हुआ
मन को एकाग्र किया
शारदे का सुमिरन किया
और फिर से लिख रहा हूँ
अपनी पराजय की कविता
अभी आज ही मैंने लिखी
एक कविता

वह अहसास जिसकी
कामना की थी
अपनी कृति में
जय की कामना करते है
तो पराजय से क्यों डरते है
हाँ मुझे असीम आनंद मिला
पराजित हुआ
जब मेरा अहंकार
जब चोट दी किसी ने
अहम पर
आघात लगा की
मै श्रेष्ठ कवि हूँ
इस वहम पर
जय का लोभ क्यों होता
हार का क्षोभ क्यों होता
मुझे ज्ञान मिला
जो भाव तुम्हारे समझ सके
उसी को कहते कविता
अभी आज ही मैंने लिखी
एक कविता

ये मुझे अटल विश्वास है
मै गलत नही था
पर शायद समझा नही सका
जो शब्द थे मेरे उनको
मीठा बना नही सका
भाव को जब समझा नही सका
मुझे लगा कि शायद
व्यर्थ ही लिखी ऐसी कविता
अभी आज ही मैंने लिखी
एक कविता

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

हम जय की कामना करते है

हम जय की कामना करते है 
तो पराजय से क्यों भागते है 
बिना पराजय जय कैसे मिलेगी 
परा यानि उस शक्ति की जय
जो अनन्त है निराकार है 
जिसकी हम सर्वत्र बोलते है जय
और जिसकी सत्ता निर्विरोध
हम सभी स्वीकार करते है
हम जय की कामना करते है
तो पराजय से क्यों भागते है..........

चाहता हूँ हो सदैव पराजय
जिससे जय का लोभ न रहे
और उस ईश्वर के सम्मुख
कभी कोई क्षोभ न रहे
उस निराकार सर्वशक्तिमान
जिसने सदैव अपने कंठ में
हार का वरण किया
चाहे वह पुष्प हार हो या
वैजन्ती हार या फिर रहा
हो विषधर का हार
जय उसी को प्राप्त होती है
जो हार का वरण करते है
हम जय की कामना करते है
तो पराजय से क्यों भागते है.........

यह शब्द ऐसा है जिस पर
अनेकों कवित्त लिखे गये
सभी जय की कामना लें
प्रभु को समर्पित किये गये
रस से भरा मेरा काव्य हो
ऐसी कामना मै क्यूं करूं
जब हारना भी सत्य है
तो पराजय से क्यूं डरूं
संदोह शिकस्त की शिकन
फिर क्यों मस्तक पर धरते है
हम जय की कामना करते है
तो पराजय से क्यों भागते है..........

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )

जाने क्यों रूठे सजन हमार



सावन में साजन घर आवें जाने क्यों रूठे सजन हमार 
मोरनी नाँच रही मोर संग रिमझिम पड़े फुहार 

सजन बिना सावन है सूना का से करूं मै गुहार 
स्वाति बूँद को पपीहा तरसे पिऊ पिऊ करें पुकार
दिन तो कट जाये सखियों के संग रात न कटे हमार
बिना पिया के बिस्तर सूना अब आंखि न लगय हमार

पिया रूठि के हमसे चले गये सखि का से करी तकरार
सावन में साजन घर आवें जाने क्यों रूठे सजन हमार

घन घमंड कर गरजे जोर छावा अँधेरा है सब ओर
बिजुली चमक रही नभ भीतर जियरा में उठे हिलोर
सावन बीति गवा बिनु साजन भादों रात चढ़ी है घोर
हर रात अमावास जैसी लागे अब नहि संग चाँद चकोर

अँखियाँ तरस गयी अब सजनी चाँद निहार निहार
सावन में साजन घर आवें जाने क्यों रूठे सजन हमार

अंखियन झाई रोय रोय पड़ गयी जानेव नही पीर हमार
विरह व्यथा में घायल पंक्षी ज्यों करता करुण पुकार
घायल की गति घायल जाने का जग से करूं मनुहार
कहती मौत खड़ी द्वारे हँस अब तुम कर लेव संग हमार

संदोह पिया नही तुमरे आइहिहे अब मानो बात हमार
सावन में साजन घर आवें जाने क्यों रूठे सजन हमार

अँखिया बरसा कर सावन बीता ठिठुर ठिठुर कर अगहन
मधुमास में चलती मस्त बयरिया जल रहा हमरा मन
कहिगे थे जल्दी आवे का का निकर गये सौ योजन
आस में उनकी खुली रही अँखिया निर्जीव होइगा तन

पाती उनके नाम छोड़ के छोडि रहिन हम ई संसार
सावन में साजन घर आवें जाने क्यों रूठे सजन हमार

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

साथ गुजरे पल का वह हिसाब मांग बैठे (ग़ज़ल )

साथ गुजरे पल का वह हिसाब मांग बैठे 
कैसे लाऊं मै वो दिल की किताब मांग बैठे 

पिलाते थे अपने चश्मों से रोज जाम जो 
वो मुझसे ही देखो आज शराब मांग बैठे 

कैसे करूं मै पूरी ये आरजू सनम की 
रेगिस्तान में वो मुझसे गुलाब मांग बैठे 

तडपते रहे दिन रात जिनकी यादों में 
वो अपने आसुंओं का हिसाब मांग बैठे

दिल के जख्मों को ले अब तक जी रहा था
आते ही आज देखों अपना ख्वाब मांग बैठे

चिदानंद शुक्ल (संदोह )

मत्गयंद सवैया




आह भरे सब देख तुझे जब चैन नही दिल को मिलता है 
मोहक रूप बनाय फिरो तुम देख तुम्हें दिल ये हिलता है 
आय गया मधुमास पिये अब यौवन भी इसमें खिलता है 
मीत करे मन प्रीत जभी तब घाव तभी दिल का सिलता है

चिदानन्द शुक्ल (संदोह ) 

जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी


रात होने को सखी साँझ भी ढल गयी 
जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 
लौट आये बसेरों में परिंदे सभी 
जला चुके दीप घरों के बशिन्दें सभी 
अब बेला दियों की बुझने की आ गयी
 जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 

जो न मिलती ये नज़रें न इल्जाम लगता 
ये मेला मोहब्बत का हर शाम लगता 
क्यों दिल आता उनपे क्यों ख्वाब पलते 
नींद आती हमें भी जरा शाम ढलते 
हम चाँद को यूं निहारा किये रात भर 
बादलों के आगोश में चांदनी छुप गयी 
जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 

न भटक राह लौट के आजा तू बन्दे 
लौट आये सभी घोसलों के परिंदे 
सपने जब बुने तूने सजना के लिए 
फिर क्यों जला रखे है इस घर के दिए 
बाट जोहा किये उनकी राहों में हम 
बन बटोही गुजरेंगें संग उनके भी हम 
वो आये न सखी अब इन्तहा हो गयी 
जाने निंदियाँ निगोड़ी कहाँ छुप गयी 

चिदानन्द शुक्ल (संदोह )
जगदम्ब सहाय सदा जिनके फिर काल कराल कहाँ डर हो जब लेख ललाट लिखे विधिना तब माँगत मातु सदा वर हो हरि पालन स्रष्टि करे तबही भव मोचनि हाथ रखे सर हो सनदोह सुधाकर हो रचना जब अम्ब निवास सदा स्वर हो 

चिदानन्द शुक्ल "सनदोह"