Wednesday, May 23, 2012


मै आईना नही तेरा बीता हुआ कल हूँ
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इतनी हैरत से न देख मुझे
मै आईना नही
तेरा बीता हुआ कल हूँ
जो तुमने जहाँ के डर से
छोड़ दिया था साथ मेरा
और कहा कि नही रहा
कभी साथ तेरा मेरा
कभी जिसको आँखों
में बसाया था तुमने
उस रोज गिरा
नज़रों का जल हूँ
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अब तो तू लाचार है
मै समझ सकता हूँ
तेरी बेचारगी को
तेरे माथे का सिन्दूर
ये कहता है तू भुला
चुकी मेरी दीवानगी को
तो फिर आज क्यूं एकटक
सा मुझको देखे जा रही हो
सूखे हुए दरिया में
अब क्यों भर रही जल हो
हाँ मै सिन्दूर तो न बन सका
पर तेरे माथे का बल हूँ
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अब तू हटा मुझसे
नज़रे और जा उसके
संग जो तेरा दर्पण है
मेरा कल भी तुझे
समर्पित था
मेरा आज भी
तुझको अर्पण है
तू मत हैरान हो
मेरी इस दशा पर
मै तेरे प्यार का
प्रतिफल हूँ
मै आईना नही
तेरा बीता हुआ कल हूँ

चिदानंद शुक्ल "संदोह "
 

Tuesday, May 1, 2012

धानी चूनर ओढ़ सखी

धानी चूनर ओढ़ सखी तुम कहाँ चली सब छोड़ सखी 

छोड़ दिया बाबुल घर गोरी तोड़ दिए सारे बन्ध सखी


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संग साथ के खेलने वाले छूट रहे है सब तुझसे सखी 


छूट रही तेरी चंचलता भी वह विचरण स्वछन्द सखी 



डोली सज रही फूलों से तेरी कहार गाय रहे राग सखी
पिया मिलन में हो के बावरी भूल रही तू खुद को सखी
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धानी चूनर ओढ़ सखी तुम कहाँ चली सब छोड़ सखी
छोड़ दिया बाबुल घर गोरी तोड़ दिए सारे बन्ध सखी
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सिसक सिसक कर बापू रोवे बिलख बिलख कर मैय्या

ढूंढ किनारा भैय्या रोवे भौजी लिपट लिपट कर मैय्या

हुई विदा जब इस घर से तुम ले गये तुझको तेरे सैंय्या
पाँच बरष से बाट जोह रहे देखो द्वार खड़े हो तेरे भैय्या 


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सारी सखिया तुझे बुलाती क्या रूठ गयी हमसे हो सखी
धानी चूनर ओढ़ सखी तुम कहाँ चली सब छोड़ सखी
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सूना घर आँगन हुआ तेरा चिड़ियों ने चहकना बंद किया
बगिया के सब फूल सूख गये भवरों ने बहकना बंद किया
चाँद भी लगता फीका फीका तारों ने चमकना बंद किया
पड़ रहा कुहासा भादों में अब सूरज ने दमकना बंद किया
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यह वीरान हुआ घर तब से जबसे तुम इसे छोड़ सखी
धानी चूनर ओढ़ सखी तुम कहाँ चली सब छोड़ सखी .


चिदानंद शुक्ल (संदोह )

चेहरे की किताब पर


चेहरे की किताब पर 

चेहरे की किताब पर 
बड़ी बहस चल रही है
सही कौन है
जो चेहरों को बेनकाब
करता है
सभी सीमाओं को लाँघ कर
या जो रहता है
सामाजिक दायरे में
कहना वह भी वही चाहता है
जो बातें कल हुई थी
मुशायरें में 

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लोग कवि को जादूगर कहते है
अश्लील शब्दों को भी जो
प्रयत्नशील होकर सामाजिक बना दे
आधुनिकता और उन्मुक्तता के
नाम पर मल्लिका शेरावत को
हेमा मालिनी बना दे
वही है कवि
उसी को कहते है जहां न
पहुंचे रवि वहाँ पहुचें कवि

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पर कवि जो
समाज का दर्पण है
वही करता है
आज अपनी बात कहने को
यदि अश्लील शब्दों का प्रयोग
तो उसमें और राखी सावंत
में अंतर क्या है
वह जिस्म को अहिस्ता अहिस्ता
करती है नग्न
और वह कवि अपनी रूह को
अहिस्ता अहिस्ता
करता है नग्न 

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और दोनों को हम
बड़े चाव से देखते और पढ़ते है
पर बोलने के समय अश्लीलता
का ढोंग रचते है
यह दोहरा चरित्र आखिर क्यों
हम दोष उनको देते है
यद्यपि दोषी हम स्वयं होते है
मानसिकता हमारी गंदी है
बाहर हम
पाश्चत्य सभ्यता का
विरोध करते है
घर में हम उसी का
प्रयोग करते है 


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तो हम ऐसी रचनाओ पर
क्यों विचार करते है
जो हमें अश्लील दिखती है
हम उस फिल्म को क्यों
देखते है जो सवांद हीन है
आज जिन्दगी हम सही
वह गलत इसी में कट रही है
चेहरे की किताब पर
बड़ी बहस चल रही है ...............

चिदानंद शुक्ल (संदोह )