Sunday, November 13, 2011

मै बनना चाहूं एक ऐसा कवि

मै बनना चाहूं एक ऐसा कवि 
जो लिखे बात अपने दिल की 
अश्रु को स्याही बनाकर 
भावनाओं की कलम से 
मै लिख डालूँ बात
अब अपने दिल की 
कीर्ति फैले हमारी ऐसे 
जैसे किरणे फैलता रवि 
मै बनना चाहूं एक ऐसा कवि

मै लिखूं ऐसी कविता 
जिसमे कोई रस न हो 
और न ही वह नीरस हो 
न श्रंगारकी गाथा हो उसमे 
न वीर रस का बखान हो 
मेरा कवित्त वीभत्स और 
करुण रस से भी अनजान हो
न ही बखान करूँ मै सोम की छवि 
मै बनना चाहूं एक ऐसा कवि

मेरा किसी से कोई नाता न हो 
कान्हा के सिवा कोई भाता न हो 
न लिखूं कोई बाते मै राग द्वेष की
पर प्रेम की परिभाषा लिखूं 
हर पल एक नई सीख सीखूं 
मेरे नयनो मे बस जाये
मेरे श्याम सुंदर की छवि 
मै बनना चाहूं एक ऐसा कवि 

चिदानन्द शुक्ल ( संदोह )

एक लड़की मेरे जीवन में क्यों बार -बार है आती

एक लड़की मेरे जीवन में क्यों बार -बार है आती 
जब भूल चूका हूँ मै उसको फिर याद क्यों उसकी आती 
मैंने छोड़ दिए सारे वह रस्ते जो उसकी याद दिलाते थे 
जला दिए वह सारे पन्नें जो उनके नाम से आते थे 
मैंने जला दिया उस दिल को जिसमे तुम रहते थे 
घर फूक तमाशा देखते आशिक ऐसा सब कहते थे 
पर जब होते है सकूँ में हम वह चैन चुराने आ जाती 
एक लड़की मेरे जीवन में क्यों बार -बार है आती 

अब क्या करे बता दो तुम सब कैसे उसको हम भूले 
सावन में जब पड़ते झूले बिन सजना के कैसे झूले 
हम जाते है मयखाने गम अपना दूर मिटाने को 
मय में आ जाती तस्वीर है उनकी मेरा दर्द बढ़ाने को 
रात में जब सोते है हम तो वह सपना बनकर आ जाती 
एक लड़की मेरे जीवन में क्यों बार -बार है आती 

जब लिखने बैठूं मै कुछ भी उसकी कविता बन जाती 
उसकी झील सी गहरी आँखों में ये कश्ती मेरी डूब जाती 
अब तो हैरान हूँ क्यों नही भूल पता हूँ उन्हें भूलकर 
जो चले गये थे मुझे इस जहाँ में तनहा छोडकर 
कविता की नायिका वो बनकर मेरी कविता में आ जाती 
एक लड़की मेरे जीवन में क्यों बार -बार है आती 

चिदानन्द शुक्ल ( संदोह )

मै अपने गम सारे

तुमसे मिलकर भूल गया हूँ मै अपने गम सारे
छोड़ आये सारे जग झगडे आ गये तेरे द्वारे 
अब नही रहा डर मौत का अपनी और न ही रही तन्हाई 
मंजिल चलकर दर पर आयी क्या है तेरी प्रभुताई 
क्यों स्नेह करें हम जग से जो स्वार्थ बस प्रीत निभाई 
राधा को प्रेम दिया है तुमने मीरा को भक्ति प्रदान किया 
अर्जुन को है सखा बनाया भीष्म के लिये प्रण त्याग दिया 
दास बना लो कान्हा हमको जग वालो ने हमे ठुकरा दिया 
सभी ओर से ठोकर पड़ रही अब साथ छोड़ गये सारे 
तुमसे मिलकर भूल गया हूँ मै अपने गम सारे

प्रीत की रीत सारा जग भूला लक्ष्मी पति बिसराई
लक्ष्मी को उर में है बसाया भूल गये प्रभु की प्रभुताई 
बचपन बीता खेलकूद कर तिरिया संग बीती तरुणाई
कान्हा को तू मीत बना ले उनसे अपनी प्रीत निभा ले 
धर्म को अपना कर्म बना ले सत्य का मर्म समझ ले 
पीर पराई जानी न तुमने तेरी व्यथा कौन सुन ले
राधा रामन हरि गोविन्द जय बोलो मिलकर सारे 
तुमसे मिलकर भूल गया हूँ मै अपने गम सारे
चिदानन्द शुक्ल ( संदोह )

अश्क बहाते रहे हम

तुम्हारे आने के इंतजार में तमाम रात जगते रहे हम 
रात के अंधेरों में भी सुबह का भरम पालते रहे हम 

और जब सुबह हुई मेरे जीवन की और वह आये 
उस वक्त गहरी नींद के आगोश में जा चुके थे हम 

ख्वाबों की मेरी दुनिया अब हकीकत बन चुकी थी
सपनों में अपनी स्वप्न सुन्दरी के संग रह रहे हम 

अब नही रहा गिला किसी के आने न आने का 
मुझको जो तुमसे मिला खुश हो गये उसी में हम 

एक गाँठ जो पड़ गयी थी हमारे तुम्हारे बीच में 
उस गाँठ को सुलझाने में ताउम्र उलझे रहे हम 

हर महफिल में तलाशती उनको मेरी नज़रें 
आये महफिल में जब तन्हाई में जा चुके थे हम 

कौन कहता है की आशिकी में जुदाई नही होती
संदोह आशिकी में अब तक अश्क बहाते रहे हम 

चिदानन्द शुक्ल ( संदोह )

रूठ गये बालम हमार


सावन में बालम घर आवत पर रूठ गये बालम हमार

मोर संग नाच रही मोरनी रिमझिम पड़े फुहार 

पिया बिना सावन है सूना का से करूँ गुहार 

स्वाति बूँद को पपीहा तरसे पिऊ पिऊ करे पुकार 

दिन तो कट जाये सखियन के संग रात न कटे हमार 

घायल की गति घायल जाने का जग से करूं मनुहार 

सावन में बालम घर आवत पर रूठ गये बलम हमार

घन घमंड कर गरजे घोर छाया अंधकार चहु ओर

दामिनी दमके नभ के भीतर जियरा में उठे हिलोर

सावन बीत गया बिनु साजन भादों रात घनघोर 

हर रात अमावास की लगती अब नही संग चाँद चकोर

सेज पड़ी पिया बिनु सूनी आँख न लगय हमार 

पिया रूठ कर हमसे चले गए का से करी तकरार 

सावन में बालम घर आवत पर रूठ गये बलम हमार

आखियाँ बरसाकर सावन बीते ठिठुर -ठिठुर कर अगहन

मधुमास की मस्त बयरिया से जल गया मेरा मन 

आय नही अब तक मेरे दिलबर कब तक बहलाऊ मन 

पिय की आस में खुली रही अखियाँ निर्जीव हो गया तन 

मौत खड़ी द्वारे पर हसती कर लेउ संग अब हमार 

संदोह विरह व्यथा में घायल पक्षी करता करुण पुकार 

सावन में बालम घर आवत पर रूठ गये बलम हमार

चिदानन्द शुक्ल (संदोह)

कलेजा काँप जाता है

तेरे बारे में जब लिखने बैठू कलेजा काँप जाता है 
कलम साथ न देती हमारा हाथ मेरा काँप जाता है 
मै सोचता हूँ तेरे हुस्न की तारीफ लिखूं या गुरूर 
यह सोचते -सोचते हूँ जाता हूँ दिल के हांथों मजबूर .
तेरी तारीफ में क्या लिखूं लोग जलने लगेगें मुझसे 
गर लिखता हूँ तेरी बेवफाई तो रहम खाने लगेगें मुझसे 
जिक्रे मोहब्बत होता है जब भी तेरा किस्सा याद आता है 
तेरे पहलू बे बैठ कर जो ख्वाब देखे थे वो मंजर याद आता है
तेरे बारे में जब लिखने बैठू कलेजा काँप जाता है 

तेरे हुस्न का जलवा ही था जिसने हमे आशिक बना दिया 
तुझसे मिलने की दीवानगी ने हमे काफिर बना दिया 
अब न ही मेरा कोई खुदा न ही उसकी कोई खुदाई है 
मेरे नसीब में तो बस अब अपने यार की जुदाई है 
कहते थे हम उनसे कोई छीन न पायेगा हमसे तुम्हें 
बेबस हो गये अपने ही प्यार से जो तन्हा छोड़ गया हमें 
गुजरता हूँ जब उनकी गलियों से वो खंजर याद आता है 
समुन्दर न डुबो पाया जिसको वह दरिया में डूब जाता है 
तेरे बारे में जब लिखने बैठू कलेजा काँप जाता है 

अब तो लगता नही मुझको की हम फिर से मिल पायेंगें
पर क्या हम बिना उनके इस जहां में अकेले रह पायेंगे
वादा तो था तुम्हारा चन्द मिनटों में लौट आने का 
हो गये वर्षों न आये तुम पता भूल गये मेरे ठिकाने का 
दिल में लगी आग को बुझाते -बुझाते सूख गया आँखों का समुन्दर
तुम आ जाते तो भर जाती आँखे मेरी देख लेता तुम्हे जी भरकर 
संदोह न आना इस राह में फिर से राही रास्ता भूल जाता है 
निकला था सत्य खोज में और मिलते ही उनके खुद को भूल जाता है 
तेरे बारे में जब लिखने बैठू कलेजा काँप जाता है

चिदानन्द शुक्ल ( संदोह )