जख्म गहरे है अब इन्हें और मत कुरेदिए
जनाब अपना बताये मेरा हाल मत पूछिए
तुम्हारे अहसानों से दबा अभी तक हूँ जिन्दा
जिन्दगी कैसी है मेरे दोस्त अब ये मत पूछिए
जाने क्यूं हर हसीं में तेरा अक्स नजर आता है
बेचैन हो उठता हूँ जरा सी आहट से मत पूछिए
हर शाम गुज़र जाती मय खाने में जाम के संग
रात तन्हा गुजरती है कैसे अब ये मत पूछिए
मंजिल तय करने की ठानी है उनके साथ यारों
वो मिले नही हमसे अब तक क्यों ये मत पूछिए
संदोह के मुक़द्दर में तो वो कभी थी ही नही
बना लिया है किस्मत उसको क्यों ये मत पूछिए
बगावत करना जहां से मेरी आदत में शुमार है
साथ कोई होगा या न होगा ये मत पूछिए
चिदानन्द शुक्ल "संदोह
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