मेरे महबूब जब तुम सामने आते हो मै खुद को भूल जाता हूँ
बहुत करता हूँ कोशिश मैं संभलने की संभलना भूल जाता हूँ
तुम्हारे आने से फिजां में ऐसे बदलाव आते है
जो छाई धूप होती है तो बादल घिर ही आते है
तुम्हारे आने पर ये बगिया पतझर में भी खिल उठती
ज्यों देख कर प्रतिबिम्ब तेरा मेरी आँखे मचल उठती
जाने क्या जादू डाल रक्खा तूने अपनी निगाहों में
मुरझाये फूल भी खिल उठते है तुझे देख बागों में
तुझसे मिलकर जाने क्या सकून हासिल होता है ऐ मेरे हमनशीं
तेरे आगोश आते ही मै दुनिया के सभी रंजो गम भूल जाता हूँ
तेरे बारे में जब भी दिल में कोई ख्याल आता है
मेरी आँखों से बरबस ही ये सागर उमड़ जाता है
मै रोक नही पाता इसको अंखियों से गिर आता है
एक अदद कतरा आँसूं का सब्र मिटा मेरा जाता है
तेरी वो मासूम सी निगाहें जिस ओर उठ जाती है
सिरहन सी उठने लगती दिल में जब तू मुस्कुराती है .
सपनों की नगरी में जब तुम आते हो बन कर हमनशीं हमारे
उठते है अनेकों प्रश्न इस दिल में जिनको पूछना मै भूल जाता हूँ
गम को छिपाने के लिए तलाश एक अदद ख़ुशी कि यारों
अभी तक चेहरे पर न आयीं हसीँ कि एक फुहार यारों
जालिम जमाना हर गम में अपना मज़ा ढूंढ लेता है
बताना कुछ भी न चाहों फिर भी सब कुछ जान लेता है
संदोह डर ये भी है कि कहीं वो बदनाम न हो जाये
मै करता हूँ उससे प्यार खबर सरे आम न हो जाये
ये होते है कुछ ऐसे अनुउत्तरित प्रश्न यारों जिनमें झूल जाता हूँ
बहुत करता हूँ कोशिश मैं संभलने की संभलना भूल जाता हूँ
चिदानन्द शुक्ल (संदोह )
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