Thursday, June 28, 2012

दुर्मिल सवैया

(१ )
गहि पाँव रही वह नारि सती;, जनि द्रोह पिया हरि संग करो 
तजि के अपनी हठ आज पिया ,,तुम राम रमापति मेल वरो
सुत मार हमार दिया जिनने ,,पल में सगरी यह लंक जरो
वह दूत रहा रघुराज पिये ;;अब तो हरि से कछु स्वामि डरो
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(२ )
सच लोग कहें अबला तुमको ,,जनि पाल रही मन में भय को
सुनि नाम हमार शची पति को,, डर लागत है उनको शय को
दिगपालहि, कालहि सेवक है ,,विजयी रण में हमसे हय को
शिव शम्भु सहाय सदा हमरे,, बहु शीश चढ़ाय रहे जय को

चिदानन्द शुक्ल "संदोह "

1 comment:

  1. मित्रों दो दुर्मिल सवैया लिखे है एक में लंकाधिपति रावण को उसकी पत्नी समझा रही है कि मत बैर करो हरि से और दुसरे में रावण उसको उत्तर दे रहा है और अपनी वीरता का बखान कर रहा है

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