प्रिये मै जित देखता हूँ तुम्ही तुम नजर आती हो
चाँद में चांदनी सी सूरज में रोशनी सी
गरजते हुए बदलो में चमकती हुई बिजली सी
पर्वतों के झरनों में नदियों कि लहरों में
ठहरे हुए पानी में मचलती जवानी में
इस आसमां में बदली बन के छा जाती हो
वीणा में स्वर सी संगीत में सरगम सी
सोये हुए मन में जगे हुए ख्वाबों सी
भवरों कि गुंजन में फूलों कि सुगंध में
पायलों कि रुनझुन में घुन्घुरुओं कि झुनझुन में
मेरे मन कि वीणा के तार छेड़ जाती हो
जेठ कि दुपहरी में पीपल कि छावं सी
गहरी गहरी नदिया में चलती हुई नाव सी
मधुमास कि मस्ती में सावन के झूलों में
शायर कि शायरी में कवि कि कविता में
आशिकों के अश्क में बन के घटा छा जाती हो
प्रिये मै जित देखता हूँ तुम्ही तुम नजर आती हो
चिदानन्द शुक्ल ( संदोह )
यह कविता मेरी प्रियतमा को समर्पित है
ReplyDeleteआज वह हमारे साथ नही है पर हर एक में हमें वही नजर आती है
जिसने मुझे यह हुनर दिया कि मै कविता लिख पाऊँ हालाँकि मेरे अंतरात्मा कि आवाज है जो कविता का रूप ले लेती है