Thursday, September 1, 2011


प्रिये  मै जित  देखता हूँ तुम्ही तुम नजर आती हो 
चाँद में चांदनी सी सूरज में रोशनी सी 
गरजते हुए बदलो में चमकती हुई बिजली सी 
पर्वतों के झरनों में नदियों कि लहरों में 
ठहरे हुए पानी में मचलती जवानी में 
इस आसमां में बदली बन के छा जाती हो 

वीणा में स्वर सी संगीत में सरगम सी 
सोये हुए मन में जगे हुए  ख्वाबों सी 
भवरों कि गुंजन में फूलों कि सुगंध  में 
पायलों कि रुनझुन में घुन्घुरुओं कि झुनझुन में 
मेरे मन कि वीणा के तार छेड़ जाती हो 

जेठ कि दुपहरी में पीपल कि छावं सी 
गहरी गहरी नदिया में चलती हुई नाव सी 
मधुमास कि मस्ती में सावन के झूलों में 
शायर कि शायरी  में कवि कि कविता में  
आशिकों के अश्क में बन के  घटा छा जाती हो 
प्रिये  मै जित  देखता हूँ तुम्ही तुम नजर आती हो 
                                                                    
                                                                  चिदानन्द शुक्ल  ( संदोह ) 

1 comment:

  1. यह कविता मेरी प्रियतमा को समर्पित है
    आज वह हमारे साथ नही है पर हर एक में हमें वही नजर आती है
    जिसने मुझे यह हुनर दिया कि मै कविता लिख पाऊँ हालाँकि मेरे अंतरात्मा कि आवाज है जो कविता का रूप ले लेती है

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