Friday, August 5, 2011

सावन की काली रात

सावन की काली रातों में जब घनघोर घटा घिर आती है
जब नभ में चाँद नही रहता और याद तुम्हरी आती है
तब ऐसा कुछ होता है मेरा मन चंचल हो उठता है
मै रोक सकूं न इसको जो तुझ संग निकल पड़ता है
न लोक लाज का भय लगता न लगें डर आंधी और तूफानों से
चल पड़ता एक अपरिचित पथ पर हो कर संग बेगानों के
जब बिजली जोरों से कडकती है मन में सिरहन आ जाती है
एक नई नवेली दुल्हन तब मेरे खवाबों में आ जाती है
तत्क्षण गिरतीं बूंदे पानी की मेरी नींद उचट तब जाती है
फिर सारा संशय मिट जाता है विरह सागर में डूब जाता हूँ
तू होकर के मेरा न हो सका मेरा मन में मै पक्षताता हूँ
तब बारिश का पानी भी अश्रु के संग घुल जाता है
अब सब कुछ छोड़ के आजा दिल बर मन मेरा घबराता है
पर तू तो होगी रकीबों के संग तुझको याद कहा है आती
मै भूल रहा हूँ उसको जितना उतना ही याद क्यों आती
तुझ संग प्रीत लगा कर मैंने खुद पर एक अहसान किया
भूल गया मै खुद को लेकिन जुबाँ पर तेरा ही नाम लिया
मै बावफा न रहा बेवफा का इलज़ाम दे मुझे
कत्ल कर दे तू मेरा अब ये तो ईनाम दे मुझे
पर नही तू ऐसा नही करेगी तू तो तडपायेगी मुझे
न आएगी पास मेरे न अपनी यादों को दूर ले जाएगी
तू तो मेरी मौत में भी अपने यार के संग जश्न मनाएगी
संदोह छोड़ दे अब उससे मिलने की आशा
शिखा तुझको शिखर से खीच लाएगी
जब हुआ सबेरा तो दिल की धड़कन बंद हो जाती है
सावन की काली रातों में जब घनघोर घटा घिर आती है

चिदानंद संदोह

No comments:

Post a Comment