कोई खीझ रहा कोई रीझ रहा कोई बातों से मेरी भीग रहा
पहचान सका न उसको अभी मन मंदिर का जो मीत रहा
गीत लिखे उस मीत पे जब इस कलम पे हक मेरा न रहा
कभी स्वप्नों मे जिसको देखा मन में धुंधली तस्वीर बनी
वह दिवा स्वप्न बन कर आयी क्यों मेरी वह तकदीर बनी
मै मोम समझ घर में लाया वह क्यों पत्थर की मूर्ति बनी
तेरे प्यार को पाने की खातिर मै कठपुतली बन नाच रहा
मै राम नही जो पत्थर को फिर से नारी में बदल सकूं
मै एक साधारण सा मानव तेरे रूप को कैसे समझ सकूं
पत्थर बन तू ह्रदय में बैठी इसमें दूजे को कैसे ढाल सकूं
पत्थर से कैसे प्रीत करूँ इस उलझन में अब तक हूँ रहा
कोई खीझ रहा कोई रीझ रहा कोई बातों से मेरी भीग रहा
मै धरती का हूँ घनघोर अँधेरा तुम तेज पुंज की ज्योति हो
मै ऋतुओं का पतझर हूँ तुम बसंत ऋतु की प्रतिनिधि हो
मैं चिदा चिता सम अग्नि हूँ तुम शिखा शिखर की रानी हो
ये कुछ कारण है जिससे संदोह को तेरे प्यार पे संदेह रहा
कोई खीझ रहा कोई रीझ रहा कोई बातों से मेरी भीग रहा
चिदानन्द शुक्ल (संदोह )
मित्रों एक गीत लिखने की कोशिश की है आप सब के विचार जानने का इच्छुक हूँ चिदानन्द शुक्ल (संदोह )
ReplyDeleteexcellent
ReplyDeletebahut hi sundar geet hai !