Wednesday, October 19, 2011

अब अहिस्ता -अहिस्ता फिर से जीना सीख रहे हम

अब अहिस्ता -अहिस्ता फिर से जीना सीख रहे हम
होश में आने से पहले गहरी बेहोशी में जा रहे हम

अब ये मुमकिन हो नही सकता कि न लौटे अब हम होश में
जहाँ से कोई वापस न आ सका उस राह से लौट आयेंगें हम

ये जिन्दगी में अब तक वहम था मुझको कि तू मेरे साथ है
तू जिन्दगी है मेरी ऐसा समझकर मौत से खेलते रहे हम

धरती और आसमान के मलिंद बनी रही दूरियां अपनी
दूर से हम मिलते नज़र आये और पास में बड़ी दूर हो गये हम

तुझको पाने कि खातिर कई वर्षों तक पूजा कि हमने पत्थर क़ी
शुक्र है अब उन का पत्थरों का जिनकी पूजा से पत्थर बन गये हम

मै तुझको चाँद समझकर हर पूनम कि रात का इंतजार करता
अब तेरी बेरुखी से पूनम कि रात को भी अमावास बन गये हम

ये आखिरी मुलाक़ात है संदोह अब दुबारा न मिल पाएंगे
न जाने ऐसा क्यों सोच कर हर शख्श से मिलते है हम

जिन्दगी ने हमे वह सब कुछ दिया जो हमारे नसीब में था
बस गलतियाँ हमारी थी उनको संभाल नही सके हम

चिदानंद संदोह मोह को हरने वाले थे मेरे भोले नाथ
उनकी कृपा रही मुझ पर जो इस मोह जाल से बचे हम

चिदानन्द शुक्ल ( संदोह )

1 comment:

  1. आज मन जो आया लिख दिया अगर कोई त्रुटी हो तो हमे सुझाव जरूर देना आपका मित्र चिदानन्द शुक्ल

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